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उदीरणाकरण ]
[ २११ अंत में अर्थात् चरम समय में वर्तमान होने पर यथायोग्य देवगति, नरकगति, वैक्रिय अंगोपांग की जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है और यदि वही असंज्ञी पंचेन्द्रिय देव या नारक भव की अपान्तराल गति में वर्तमान हो तो यथाक्रम से देवानुपूर्वी या नरकानुपूर्वी के तीसरे समय में जघन्य स्थिति की उदीरणा करता है।
'नराण एगिंदियागयगे त्ति' अर्थात् सर्व जघन्य मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता वाला कोई एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय भव से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होता हुआ अपान्तराल गति में वर्तमान तीसरे समय में मनुष्यानुपूर्वी की जघन्य स्थिति उदीरणा का स्वामी होता है। तथा –
समयाहिगालिगाए, पढमठिईए उ सेसवेलाए।
मिच्छत्ते वेएसु य, संजलणासु वि य समत्ते ॥ ३९॥ शब्दार्थ – समयाहिगालिगाए - समयाधिक आवलि, पढमठिईए - प्रथम स्थिति में, उ- और, सेसवेलाए – बाकी रहने पर, मिच्छत्ते - मिथ्यात्व, वेएसु - वेदत्रिक, य - और, संजलणासु – संज्वलन कषायों की, वि - विशेष, य - और, समत्ते – सम्यक्त्व मोहनीय की।
गाथार्थ – मिथ्यात्व, वेदत्रिक और संज्वलन कषायों और सम्यक्त्व मोहनीय की जघन्य स्थिति उदीरणा प्रथम स्थिति की समयाधिक आवलिका शेष रहने पर होती है। विशेष सम्यक्त्व और संज्वलन लोभ की क्षय और उपशम होने पर जानना चाहिये।
विशेषार्थ – अन्तरकरण करने पर अधस्तन स्थिति को प्रथमस्थिति कहते हैं – 'अन्तर - करणे कृतेऽधस्तनी स्थितिः प्रथमा स्थितिरित्युच्यते' और उपरितन स्थिति को द्वितीयस्थिति कहते हैं। इसमें प्रथम स्थिति का समयाधिक आवलिका प्रमाण काल शेष रह जाने पर मिथ्यात्व, तीन वेद, चारों संज्वलन कषायों और सम्यक्त्व मोहनीय की जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। विशेष यह है कि सम्यक्त्व प्रकृति और संज्वलन लोभ की क्षय या उपशम होने पर जघन्य स्थिति-उदीरणा जानना चाहिये। तथा -
पल्लासंखियभागू-णुदही एगिंदियागए मिस्से।
बेसत्तभागवेउ-व्वियाए पवणस्स तस्संते॥४०॥ शब्दार्थ – पल्लासंखियभागूण – पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन, उदही – एक सागरोपम प्रमाण, एगिंदियागए - एकेन्द्रिय में से आया हुआ, मिस्से - मिश्रमोहनीय की, बेसत्तभागवेउव्वियाए - सात भागों में से दो भाग सागरोपम की स्थिति वाले वैक्रियषट्क की, पवणस्स – वायुकायिक के, तस्संते - उसके अन्त में।