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[ कर्मप्रकृति उनका रस पुद्गलविपाकी नहीं है, किन्तु जीवविपाकी ही है। इसी प्रकार क्रोधादि कषायों के लिये जानना चाहिये।
क्षेत्र का आश्रय करके जिस रस का विपाकोदय होता है, वह रस क्षेत्रविपाकी कहलाता हैक्षेत्रमधिकृत्य यस्स रसस्य विपाकोदयः स रसः क्षेत्रविपाकः। वह चारों आनुपूर्वियों का जानना चाहिये।
भव का आश्रय करके जिस रस का विपाकोदय होता है, उसे भवविपाकी कहते हैं - भवमधिकृत्य यस्य रसस्य विपाकोदयः स रसो भवविपाकः। वह चारों आयुकर्मों का जानना चाहिये।
प्रश्न – गतियों का भी भव-आश्रय से विपाकोदय होता है, तब उनका रस भवविपाकी क्यों नहीं कहा जाता है ?
उत्तर – उक्त कथन व्यभिचारी होने से अयुक्त है। क्योंकि आयुकर्मों का अपने अपने भव के बिना परभव में संक्रमण के द्वारा भी उदय नहीं होता है । इसलिये स्वभव के साथ सर्वथा अव्यभिचारी होने से उनको भवविपाकी कहा जाता है, किन्तु गतियों का परभव में भी संक्रमण से उदय होता है। इसलिये अपने भव के साथ व्याभिचार होने से वे भवविपाकी नही हैं। कहा भी है -
आउव्व भवविवागा गई न आउस्स परभवे जम्हा।
नो सव्वहा वि उदयो गईण पुण संकमे णत्थि॥' अर्थात् आयु के समान गति भवविपाकी नहीं है। क्योंकि आयु का परभव में संक्रमण से भी उदय नहीं होता है, किन्तु गतियों का ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उनका संक्रमण से भी उदय होता है।
पूर्वोक्त सर्व प्रकृतियों से शेष रही अठहत्तर प्रकृतियों का रस जीवविपाकी है। क्योंकि जिसके विपाक का आधार साक्षात् जीव ही है, उसे जीवविपाकी कहते हैं - जीवमेवधिकृत्य विपाको यस्यासौ जीवविपाकः। 'नाणत्तमित्यादि' नानात्व अर्थात् विशेषता शतक नामक ग्रन्थ के अनुभागबंध में जो विशेषता नहीं कही गई है उसको यहां कहेंगें तथा वहां बंध का आश्रय करके मिथ्यात्वादि प्रत्यय, (हेतु) कहे हैं, किन्तु यहां उदीरणा का आश्रय करके अन्य ही ये वक्ष्यमाण प्रत्यय जानना चाहिये।
अब नानात्व, (विशेषता) की प्ररूपणा करते हैं -
१. पंचसंग्रह तृतीय द्वार गाथा - १६६