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उदीरणाकरण ]
२२७ उससे अन्य सभी उदीरणा अनुत्कृष्ट होती है । तथा वह अप्रमत्तगुणस्थान आदि में नहीं होती है एवं वहां से प्रतिपात होने पर होती है। अतएव वह सादि है, किन्तु उस स्थान को अप्राप्त जीव के अनादि है। ध्रुव और अध्रुव विकल्प क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये।
मोहनीयकर्म की जघन्य अनुभाग-उदीरणा सूक्ष्मसंपरायक्षपक के स्थिति में समयाधिक आवलिका काल शेष रह जाने पर होती है, अत: वह सादि है और उसके अनन्तर समय में अभाव हो जाने से अध्रुव है। शेष काल में तो अजघन्य अनुभाग-उदीरणा होती है। और वह उपशान्तमोह गुणस्थान में नहीं होती है, किन्तु वहां से प्रतिपात होने पर होती है, इसलिये वह सादि है । उस स्थान को अप्राप्त जीव के अनादि होती है। ध्रुव अध्रुव विकल्प पूर्ववत् क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये।
'तस्सेसिगा' इत्यादि अर्थात् ऊपर कहे गये विकल्पों से अतिरिक्त शेष विकल्प दो प्रकार जानना चाहिये, यथा – सादि और अध्रुव। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
चारों घातिकर्मों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग-उदोरणा मिथ्यादृष्टि जीव में क्रम से पायी जाती है, इसलिये वे दोनों ही सादि और अध्रुव हैं । जघन्य अनुभाग-उदीरणा पहले ही बतायी जा चुकी है। नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की जघन्य, अजघन्य अनुभाग-उदीरणा मिथ्यादृष्टि जीव में क्रम से पायी जाती है अतः वे भी दोनों सादि अध्रुव हैं।
आयुकर्मों के सभी विकल्प सादि और अध्रुव होते हैं और यह सादिता और अध्रुवता अध्रुव उदीरणा से जानना चाहिये।
इस प्रकार मूलप्रकृति विषयक सादि अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये। अब उत्तरप्रकृति विषयक सादि अनादि प्ररूपणा का कथन प्रारंभ करते हैं।
मउलहुगाणुक्कोसा चउव्विहा तिहमवि य अजहन्ना। णाइगधुवा य अधुवा वीसाए होयणुक्कोसा॥५६॥ तेवीसाए अजहण्णा विय एयासि सेसगविगप्पा।
सव्वविगप्पा सेसाण वावि अधुवा य साईया॥५७॥ शब्दार्थ - मउलहुगाणुक्कोसा - मृदु, लघु की अनुत्कृष्ट, चउव्विहा - चार प्रकार की, तिहमवि - तीन की भी, य - और, अजहन्ना - अजघन्य, णाइगधुवा – अनादि ध्रुव, य - और, अधुवा – अध्रुव, वीसाए - बीस की, होय – होती है, अणुक्कोसा - अनुत्कृष्ट ।
तेवीसाए – तेईस की, अजहण्णा - अजघन्य, विय - भी, एयासि – इनके,