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उदीरणाकरण ]
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सेसाओ इत्यादि अर्थात् शेष रही सातावेदनीय, असातावेदनीय, आयुचतुष्क, गतिचतुष्क, जातिपंचक, औदारिकसप्तक, संहननषट्क, पहले के सिवाय शेष पांच संस्थान, कर्कश, गुरु स्पर्श, आनुपूर्वीचतुष्क उपघात, आतप, उच्छ्वास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, साधारण, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र रूप छप्पन प्रकृतियां अनुभाग उदीरणा की अपेक्षा भवप्रत्ययिक जानना चाहिये । अर्थात् इनके अनुभाग की उदीरणा भवप्रत्यय से होती है।
'पुव्वत्ता' इत्यादि अर्थात् पूर्वोक्त प्रकृतियां भी 'पुव्वुत्त सेसाणं' अर्थात् पूर्वोक्त शेष जीवों के अतिरिक्त यानि तिर्यंच और मनुष्यों के अतिरिक्त शेष जीवों के अनुभाग उदीरणा भवप्रत्ययिक जानना चाहिये। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि -
देव और नारकों के द्वारा तथा व्रत रहित तिर्यंच और मनुष्यों के द्वारा नौ नोकषायों के पश्चानुपूर्वी द्वारा उत्कृष्ट अनुभाग स्पर्धक से लेकर असंख्य अनुभाग स्पर्धक भवप्रत्यय से ही उदीरित किये जाते हैं, तथा वैक्रियसप्तक, तैजससप्तक, वर्णपंचक, गंधद्विक, रसपंचक, स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु नाम इन प्रकृतियों के अनुभाग की उदीरणा देव, नारक भवप्रत्यय से करते हैं तथा समचतुरस्रसंस्थान की उदीरणा भवधारणीय शरीर में वर्तमान देव भवप्रत्यय से करते हैं। मृदु लघु स्पर्श, पराघात, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, सुस्वर और प्रत्येक नाम प्रकृतियों के अनुभाग की उदीरणा वैक्रियशरीरी जीवों को छोड़ कर शेष जीवों के भवप्रत्यय से होती है। सुभग, आदेय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र के अनुभाग की उदीरणा गुणहीन जीवों के भवप्रत्यय और गुणवान जीवों के गुणप्रत्यय से जानना चाहिये तथा सभी घातिप्रकृतियों की अनुभागउदीरणा देव और नारकों के भवप्रत्यय से ही होती है। इस प्रकार से प्रत्यय प्ररूपणा जानना चाहिये। सादि-अनादि प्ररूपणा
अब क्रम प्राप्त सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। वह दो प्रकार की है - १. मूलप्रकृति विषयक और २. उत्तरप्रकृति विषयक। इनमें से पहले मूलप्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं -
घाईणं अजघन्ना दोण्हमणुक्को - सियाओ तिविहाओ। वेयणिएणुक्कोसा अजहन्ना मोहणीए उ॥५४॥ साइ अणाई धुव अधुवा य तस्सेसिगा य दुविगप्पा। आउस्स साइ अधुवा सव्वविगप्पा उ विनेया॥५५॥