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उदीरणाकरण ]
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अगुरुलघु नाम इतनी प्रकृतियां अनुभाग उदीरणा की अपेक्षा तिर्यंच और मनुष्यों के परिणामप्रत्यय वाली है। क्योंकि वैक्रियसप्तक तिर्यंच और मनुष्यों के गुणविशेष से उत्पन्न लब्धि के प्रत्यय (निमित्त) से उत्पन्न होते हैं । इसलिये इनकी उदीरणा भी गुण रूप परिणाम के प्रत्यय वाली होती है।
तैजससप्तक आदि तो तिर्यंच और मनुष्यों के द्वारा अन्य अन्य प्रकार से परिणमन कर उदीरित किये जाते हैं, इसलिये उन प्रकृतियों की भी अनुभाग उदीरणा तिर्यंच और मनुष्यों के परिणामप्रत्यय वाली होती है। तथा –
चउरंसमउयलहुगा - परघाउज्जोयइट्ठखगइसरा।
पतेगतणू उत्तर-तणुसु दोसु विय तणू तइया॥५१॥ शब्दार्थ – चउरंस - समचतुरस्र, मउय - मृदु, लहुगा - लघु, परघाउज्जोय - पराघात, उद्योत, इट्ठखगइसरा - प्रशस्त विहायोगति, स्वर, पतेगतणू - प्रत्येक शरीर, उत्तरतणुसु - उत्तर शरीर में, दोसु – दोनों में, य - और, तणू – शरीर, तइया - तीसरा (आहारक)।
गाथार्थ – समचतुरस्रसंस्थान मृदु, लघु, पराघात, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति स्वर और प्रत्येक शरीर ये प्रकृतियां 'उत्तर शरीर में' परिणाम प्रत्यय वाली हैं। तीसरा शरीर (आहारकशरीर) भी गुणपरिणाम प्रत्ययिक है।
विशेषार्थ – समचतुरस्रसंस्थान मृदु, पराघात, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, सुस्वर और प्रत्येक नाम ये आठ प्रकृतियां वैक्रिय और आहारक रूप उत्तर शरीरों में अनुभाग उदीरणा की अपेक्षा परिणामप्रत्ययिक जानना चाहिये। क्योंकि उत्तर वैक्रियशरीर के अथवा आहारकशरीर के होने पर समचतुरस्रसंस्थान आदि उक्त प्रकृतियों की अनुभाग उदीरणा प्रवर्तमान होती है। अत: वह उत्तरवैक्रिय आदि शरीर के परिणाम की अपेक्षा रखती है।
तीसरा तनु-शरीर अर्थात् आहारकशरीर तथा आहारकशरीर से आहारकसप्तक ग्रहीत जानना चाहिये। यह आहारकसप्तक भी अनुभागउदीरणा की अपेक्षा परिणामप्रत्ययिक है। क्योंकि आहारक मनुष्यों के गुणपरिणाम-प्रत्यय वाला होता है, इसलिये उसके अनुभाग की उदीरणा भी गुणपरिणाम प्रत्यय वाली होती है। तथा –
देसविरय विरयाणं सुभगाएज्जजसकित्तिउच्चाणं।
पुव्वाणुपुव्विगाए असंखभागो थियाईणं॥५२॥ शब्दार्थ – देसविरयविरयाणं - देशविरत और विरतों के, सुभगाएजजसकित्तिउच्चाणंसुभग, आदेय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र, पुव्वाणुपुव्विगाए – पूर्वानुपूर्वी के, असंखभागो -