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उदीरणाकरण ]
, [ २२१ होती (करता) है। क्योंकि अनन्तानन्त स्पर्धकों के अनुभाग का क्षय कर देने पर भी अनन्त स्पर्धक उत्कृष्ट रस वाले अभी भी विद्यमान रहते हैं । इसलिये अनन्त भाग शेष रहने पर अर्थात् मूल अनुभाग सत्व की अपेक्षा अनन्त गुणहीन अनुभाग में उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा पाई जाती है तो फिर असंख्यात गुण आदि अनुभागसत्व में तो कहना ही क्या है ? - अब विपाक में विशेषता बतलाते हैं -
विरियंतराय केवल दंसणमोहणीय णाणवरणाणं।
असमत्त पज्जएसु (च)सव्वदव्वेसु उ विवागो॥४८॥ शब्दार्थ – विरियंतराय – वीर्यान्तराय, केवलदसण – केवलदर्शनावरण, मोहणीय - मोहनीय, णाणवरणाणं – ज्ञानावरण का, असमत्तपज्जएसु - अपूर्ण पर्यायों में, च - और, सव्वदव्वेसु उ – सर्व द्रव्यों में (जीवों में), विवागो – विपाक।
गाथार्थ – वीर्यान्तराय, केवलदर्शनावरण, मोहनीय और ज्ञानावरण का विपाक सर्व द्रव्यों अर्थात् सभी जीवों में किन्तु उनकी अपूर्ण पर्यायों में होता है।
विशेषार्थ – वीर्यान्तराय, केवलदर्शनावरण, अट्ठाईस प्रकार का मोहनीय और पांच प्रकार का ज्ञानावरण इन पैंतीस प्रकृतियों का विपाक सर्वद्रव्यों अर्थात् सभी जीवों में किन्तु उनकी असमस्त पर्यायों में होता है। इसका आशय यह है कि -
ये वीर्यान्तराय आदि पैंतीस प्रकृतियां द्रव्य की अपेक्षा संपूर्ण ही जीवद्रव्य का घात करती हैं किन्तु सभी पर्यायों का घात नहीं करती हैं। जैसे - अति सघनतर मेघों के द्वारा पूर्ण रूप से आच्छादित होने पर भी सूर्य और चन्द्रमा की प्रभा सर्वथा दूर नहीं की जा सकती है। कहा भी है -
सुट्ठ वि मेहसमुदए होइ पहा चंदसूराणं ति। अर्थात् अत्यन्त गहन मेघ समुदाय के होने पर भी चन्द्र और सूर्य की प्रभा होती है। इसी प्रकार यहां पर भी समझना चाहिये। तथा –
गुरुलघुगा पंतपएसिएसु चक्खुस्स रूविदव्वेसु।
ओहिस्स गहणधारण-जोग्गे सेसंतरायाणं॥ ४९॥ शब्दार्थ - गुरुलघुगा - गुरुलघु वाले, णंतपएसिएसु - अनन्त प्रदेशी स्कन्धों में, चक्खुस्स - चक्षुदर्शनावरण की, रूविदव्वेसु - रूपी द्रव्यों में, ओहिस्स - अवधिदर्शनावरण का, गहणधारणजोग्गे – ग्रहण धारण योग्य, सेसंतरायाणं - शेष अन्तरायों का।