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[ कर्मप्रकृति गाथार्थ – चक्षुदर्शनावरण का विपाक अनन्त प्रदेशी गुरुलघु स्कन्धों में, अवधिदर्शनावरण का रूपी द्रव्यों में और शेष अन्तराय कर्मों का ग्रहण धारण योग्य पुद्गल द्रव्यों में होता है।
विशेषार्थ – चक्षु अर्थात् चक्षुदर्शनावरण का जो गुरुलघु परिणाम वाले अनन्त प्रदेशी स्कन्ध हैं उनमें विपाक होता है। अवधिदर्शनावरण का विपाक रूपी द्रव्यों में होता है और अन्तराय कर्मों – दान, लाभ, भोग और उपभोग अन्तराय कर्मों का विपाक ग्रहण - धारण योग्य पुद्गल द्रव्यों में होता है, शेष पुद्गलों में नहीं। क्योंकि जितने विषय में चक्षुदर्शन आदि व्यापार करते हैं, उतने ही विषय में चक्षुदर्शनावरण आदि भी अपना व्यापार करते हैं । इसलिये ऊपर कहा हुआ विषय का नियम विरोध को प्राप्त नहीं होता है। शेष प्रकृतियों का विपाक जैसा ऊपर कहा है उसी प्रकार पुद्गलविपाक आदि रूप जानना चाहिये।
इस प्रकार विपाक विषयक विशेषता समझना चाहिये। प्रत्यय - प्ररूपणा
अब प्रत्ययप्ररूपणा के विचार का क्रम प्राप्त है। अतः उसको बतलाते हैं। प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं - १. परिणामप्रत्यय और २. भवप्रत्यय। इनमें से पहले परिणामप्रत्यय का कथन करते हैं -
वेउव्विय तेयग कम्म वन्न रस गंध निद्धलुक्खाउं।
सीउण्हथिरसुभेयर-अगुरुलघुगा य नरतिरिए॥५०॥ शब्दार्थ – वेउव्विय – वैक्रिय, तेयग – तैजस, कम्म – कार्मण, वन्न – वर्ण, रस - रस, गंध – गंध, निद्धलुक्खाउं – स्निग्ध, रूक्ष, सीउण्ह – शीत, उष्ण, थिरसुभेयर – स्थिर, शुभ और इतर, अगुरुलघुगा – अगुरुलघु, य - और, नरतिरिए - मनुष्य तिर्यंच के।
गाथार्थ – वैक्रिय, तैजस, कार्मण, वर्ण, रस, गंध, स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण, स्थिर, शुभ और इन दोनों के इतर अर्थात् अस्थिर, अशुभ, अगुरुलघु इन प्रकृतियों की अनुभाग उदीरणा मनुष्यों और तिर्यंचों के परिणामप्रत्यय वाली होती है।
विशेषार्थ – वैक्रियसप्तक, तैजस और कार्मण के ग्रहण से तैजससप्तक भी ग्रहीत है, तथा वर्णपंचक, गंधद्विक, रसपंचक, स्निग्ध, रूक्ष, शीत, उष्ण स्पर्श, स्थिर, अस्थिर, शुभ-अशुभ और १. 'गुरुलघु परिणाम वाले' यह सामान्य शब्द है। इसमें गुरु अर्थात् पत्थर आदि की तरह गुरुपरिणामी, धूप आदि की तरह लघुपरिणामी और ज्योतिष्क विमान आदि की तरह गुरुलघुपरिणामी यह अर्थ गर्भित है।