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उदीरणाकरण ]
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एकस्थानक रस वाले हैं।
यदि बंध की अपेक्षा विचार किया जाये तो स्त्रीवेद चतु:स्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रस वाला है। पुरुषवेद, अचक्षुदर्शनावरण और चक्षुदर्शनावरण चारों ही प्रकार के रस वाले हैं यथा - चतु:स्थानक, त्रिस्थानक, द्विस्थानक और एकस्थानक।
प्रश्न – 'देसघाई अचक्खू य त्ति' अर्थात् अचक्षुदर्शनावरण देशघाति है यह पहले ही कहा है फिर यहां अचक्षुदर्शनावरण का ग्रहण किस लिये किया गया है ?
उत्तर - स्थान नियम के लिये इसका पुनर्ग्रहण किया है । अर्थात् पहले तो अचक्षुदर्शनावरण का देशघातिपना ही कहा गया था, किन्तु यहां पर उसके रसस्थान का नियम कहा गया है।
'जस्सत्थि' इत्यादि अर्थात् जिस जीव के एक भी अक्षर सर्व पर्यायों (श्रुतज्ञान संबंधी) से परिज्ञात होता है, उस श्रुतकेवली के मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण इन चार प्रकृतियों में एकस्थानक रस पाया जाता है।
संज्वलन कषायों का तो बंध और अनुभाग उदीरणा में चार प्रकार का रस होता है यथा - चतु:स्थानक, त्रिस्थानक, द्विस्थानक और एकस्थानक। तथा –
मणनाणं सेससमं, मीसगसम्मत्तमवि य पावेसु।
छट्ठाणवडियहीणा, संतुक्कस्सा उदीरणया॥ ४७॥ शब्दार्थ – मणनाणं - मनःपर्यायज्ञान, सेससमं - शेष के समान, मीसगसम्मत्तमवि - मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय भी, य - और, पावेसु – पाप प्रकृतियों, छट्ठाणवडियहीणा - षट्स्थान पतित हीन, संतुक्कस्सा - (अनुभाग) सत्ता की उत्कृष्ट, उदीरणया – उदीरणा।
गाथार्थ - मनःपर्यायज्ञान शेष कर्मों के समान तथा मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय पाप प्रकृतियों के समान जानना चाहिये। षट्स्थानपतित हीन अनुभाग सत्ता की उत्कृष्ट उदीरणा होती है।
विशेषार्थ - मनःपर्यायज्ञान शेष कर्मों के समान जानना चाहिये। इसका आशय यह है -
जिस प्रकार शेष कर्मों की उदीरणा चतु:स्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक रस की होती है, उसी प्रकार मनःपर्यायज्ञानावरण की भी जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि बंध में मनः पर्यायज्ञानावरण का रस चारों प्रकार का होता है और शेष कर्मों का रस बंध में तीन प्रकार का होता है। यथा – चतु:स्थानक, त्रिस्थानक और द्विस्थानक। उन शेष कर्मों के नाम इस प्रकार है -
केवलज्ञानावरण, निद्रापंचक, केवलदर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, आदि