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[ कर्मप्रकृति
पंचेन्द्रियजाति, प्रथम संहनन, औदारिकसप्तक, संस्थानषट्क उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, सुभग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, यश कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन बत्तीस प्रकृतियों की तथा पूर्वोक्त ध्रुव उदीरणा वाली नामकर्म कीतेतीस प्रकृतियों की, इस प्रकार सब मिला कर पैंसठ प्रकृतियों की जघन्य स्थिति उदीरणा सयोगी केवलि के चरम समय में होती है । यह जघन्य स्थिति का काल भिन्नमुहूर्त अर्थात् अन्तर्मुहूर्त है।
आयुकर्मचतुष्क की भी जघन्य स्थिति उदीरणा अंतिम समय में होती है । इस प्रकार स्थितिउदीरणा का विवेचन जानना चाहिये ।
अनुभाग - उदीरणा
अब अनुभाग - उदीरणा के विचार करने का अवसर प्राप्त है। इसके विचार के छह अर्थाधिकार प्राप्त हैं - १. संज्ञा, २. शुभाशुभ प्ररूपणा, ३. विपाक प्ररूपणा, ४. प्रत्यय प्ररूपणा, ५. सादि अनादि प्ररूपणा ६. स्वामित्व प्ररूपणा । इनमें से सर्व प्रथम संज्ञा, शुभाशुभ और विपाक का कथन करते हैंअणुभागुदीरणाए, सन्ना य सुभासुभा विवागो य । अणुभागबंधि भणिया, नाणत्तं पच्चया चेमे ॥ ४३ ॥
अणुभागुदीरणाए - अनुभाग उदीरणा में सन्ना
संज्ञा, य
और,
शब्दार्थ सुभासुभा - शुभाशुभ, विवागो – विपाक, य और, अणुभागबंधि - बंध में, कहा है, नाणत्तं . भिन्नता, पच्चया प्रत्यय, चेमे
(
शतक के ) अनुभाग
और इस प्रकार ।
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गाथार्थ
अनुभाग - उदीरणा में संज्ञा, शुभाशुभ और विपाक का कथन जैसा शतक के अनुभाग बंध में कहा है, उसी प्रकार जानना चाहिये। लेकिन यहां जो विशेषता है और प्रत्यय प्ररूपणा है वह इस प्रकार है ।
विशेषार्थ अनुभाग उदीरणा में संज्ञा, शुभ-अशुभ प्ररूपणा और विपाक प्ररूपणा जिस प्रकार 'शतक' नामक ग्रंथ में अनुभागबंध के कथन के संदर्भ में कही गई है, उसी प्रकार यहां पर भी जानना चाहिये। लेकिन जो विशेषता है वह इस प्रकार है
संज्ञा के दो भेद हैं
स्थानसंज्ञा और घातिसंज्ञा । स्थानसंज्ञा चार प्रकार की है एकस्थानक, द्वि-स्थानक, त्रि - स्थानक और चतु:स्थानक । घातिसंज्ञा तीन प्रकार की है - सर्वघाति, देशघाति और अघाति ।
शुभ कर्मों का अनुभाग क्षीर, खांड आदि के रस के समान शुभ और अशुभ कर्मों का अनुभाग
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