________________
२१२ ]
[ कर्मप्रकृति गाथार्थ – पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन एक सागरोपम प्रमाण स्थिति वाला और एकेन्द्रियों से आया हुआ जीव मिश्रमोहनीय की जघन्य स्थिति-उदीरणा करता है तथा २७ सागरोपम की स्थिति वाले वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति-उदीरणा वायुकायिकजीव को जीवन के अंत में होती
विशेषार्थ – पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून जो एक सागरोपम है उतनी सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति सत्तावाला कोई एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय के भव से निकल कर संज्ञी पंचेन्द्रियों के मध्य उत्पन्न हुआ। तब से लेकर अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त किया, उस समय में अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व प्राप्त करने के चरम समय में सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है। क्योंकि एकेन्द्रियों की जघन्य स्थिति सत्ता से नीचे वर्तमान सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति उदीरणा के योग्य नहीं होती है। उतनी स्थिति के रहने पर अवश्य ही मिथ्यात्व का उदय संभव होने से उसकी उद्वलना संभव है।
_ 'वेसत्तभागवेउव्वियाए' अर्थात् एक सागरोपम के सात भाग करने पर उसके दो भाग जितनी अर्थात् २/७ सागरोपम प्रमाण जिसकी स्थिति है ऐसे वैक्रियषट्क यानि वैक्रियशरीर वैक्रियसंघात और वैक्रियबंधनचतुष्क को द्विसप्तभागवैक्रिय कहते हैं। यहां विशेषण समास है । प्राकृत होने से 'वेउव्वियाए' ऐसा स्त्रीलिंग निर्देश किया है। यहां भी पल्य के असंख्यातवें भाग की अनुवृत्ति करना चाहिये। अतएव इसका समुच्चय अर्थ यह हुआ कि सत्तावाले पवन अर्थात् बादर वायुकायिक जीव के विक्रिया करने के अन्तिम समय में जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। इसका आशय यह है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन सागरोपम के २/७ प्रमाण वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति सत्तावाला जीव अनेक बार विक्रिया को प्रारंभ करके अंतिम विक्रिया के चरम समय में विद्यमान जघन्य स्थिति-उदीरणा करता है। इसके अनंतर समय में एकेन्द्रियों की जघन्य स्थिति सत्ता की अपेक्षा अल्पतर होती है। इस कारण वह उदीरणा के योग्य नहीं होती है, किन्तु उद्वलना के योग्य होती है। तथा –
चउरुवसमेत्तु पेजं, पच्छा मिच्छं खवेत्तु तेत्तीसा।
उक्कोससंजमद्धा अन्ते सुतणूउवंगाणं॥४१॥ शब्दार्थ – चउरुवसमेत्तु – चार बार उपशमित कर, पेज - प्रेम, मोहनीय, पच्छा - पीछे, मिच्छ - मिथ्यात्व को, खवेत्तु - क्षय करके, तेत्तीसा - तेतीस, उक्कोस - उत्कृष्ट, संजमद्धा – संयम काल के, अन्ते - अन्त में, सुतणूउवंगाणं - शुभ शरीर व अंगोपांग अर्थात् आहारकद्विक।
गाथार्थ – चार बार प्रेम अर्थात् मोहनीय कर्म को उपशमित करके पीछे मिथ्यात्व को क्षय