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[कर्मप्रकृति
में जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है।
नीचगोत्र की जघन्य स्थिति-उदीरणा असातावेदनीय के समान जानना चाहिये।
सर्व जघन्य स्थिति सत्व वाला कोई बादर तैजसकायिक अथवा वायुकायिक जीव पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रियों के मध्य में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् बड़े अन्तर्मुहूर्त काल तक मनुष्यगति को बांधता है
और उसे बांधने के अनन्तर तिर्यंचगति को बांधना आरंभ करता है, तब बंधावलिका के चरम समय में उस तिर्यंचगति की जघन्य स्थिति-उदीरणा को करता है। इसी प्रकार तिर्यंचानुपूर्वी की भी जघन्य स्थिति-उदीरणा समझना चाहिये। विशेष यह है कि अपान्तराल गति में तीसरे समय में जघन्य स्थितिउदीरणा कहना चाहिये।
__ अयश:कीर्ति, दुर्भग और अनादेय की जघन्य स्थिति-उदीरणा असातावेदनीय के समान कहना चाहिये। लेकिन विशेष यह है कि यहां पर प्रतिपक्ष प्रकृति यश:कीर्ति, सुभग और आदेय का बंध कहना चाहिये। तथा –
अमणागयस्स चिरठिइ अंते सुरनरयगइउवंगाणं।
अणुपुव्वीतिसमइगे नराण एगिदियागयगे॥ ३८॥ शब्दार्थ – अमणागयस्स - असंज्ञी जीवों से आगत, चिरठिई – दीर्घ स्थिति, अंते – अन्त में, सुरनरयगइउवंगाणं - देवगति, नरकगति, और (वैक्रिय) अंगोपांग की, अणुपुव्वी - (देव, मनुष्य और नरक) आनुपूर्वी की, तिसमइगे - तीसरे समय में, नराण - मनुष्य के, एगिदियागयगे – एकेन्द्रियों से आने वाले।
गाथार्थ – असंज्ञी पंचेन्द्रियों में से आगत देव और नारक के अपनी दीर्घ स्थिति के अंत में देवगति, नरकगति और वैक्रिय अंगोपांग नाम की और देवानुपूर्वी और नरकानुपूर्वी की अंसंज्ञी के अपान्तराल गति में तीसरे समय में तथा एकेन्द्रियों से आने वाले जीव के विग्रहगति में तीसरे समय में मनुष्यानुपूर्वी की जघन्य स्थिति-उदीरणा होती है।
विशेषार्थ – अमनस्क अर्थात् असंज्ञी पंचेन्द्रिय से निकलकर देवों या नारकों में आये हुये जीव के देवगति, नरकगति और वैक्रिय अंगोपांग इन तीन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति-उदीरणा अपनी आयु की दीर्घ स्थिति के अंत में होती है। इसका तात्पर्य यह है कि -
_कोई असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव सर्व जघन्य देवगति या नरकगति की स्थिति को बांधकर और बांधने के अनन्तर दीर्घ काल तक उसमें ही रहकर मरण करके देवों या नारकों के मध्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण आयु स्थिति के धारक देव या नारक के अपने अपने आयु की दीर्घ स्थिति के