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उदीरणाकरण ]
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जाति के लिये भी जानना चाहिये। तथा –
वेयणिया नोकसाया-समत्तसंघयण पंच नीयाण।
तिरियदुग अयस, दूभगणाइजाणं च संनिगए॥ ३७॥ शब्दार्थ – वेयणिया – वेदनीय, नोकसाया – नोकषाय, असमत्त – अपर्याप्त, संघयण पंच - संहननपंचक, नीयाण - नीचगोत्र, तिरियदुग - तिर्यंचद्विक, अयस - अयश:कीर्ति, दूभगणाइजाणं - दुर्भग, अनादेय, च - और, संनिगए - संज्ञी जीवों में आगत। .
गाथार्थ – वेदनीय, नोकषाय, अपर्याप्त, संहननपंचक, नीचगोत्र, तिर्यंचद्विक, अयश:कीर्ति, दुर्भग और अनादेय की जघन्य स्थिति की उदीरणा संज्ञी जीवों में आगत करता है।
विशेषार्थ – साता और असातावेदनीय, हास्य रति, अरति शोक, अपर्याप्तक, अंतिम संहनन पंचक, नीचगोत्र, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, अयशःकीर्ति, दुर्भग और अनादेय इन अठारह प्रकृतियों की संज्ञी पंचेन्द्रिय में जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। जिसका आशय इस प्रकार है -
जघन्य स्थिति सत्व वाला एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय भव से निकलकर पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हुआ और उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर सातावेदनीय को अनुभव करता हुआ असातावेदनीय को दीर्घतर अन्तर्मुहूर्त तक बांधता है। तत्पश्चात् पुनः सातावेदनीय का बंध प्रारंभ करता है। तब बंधावलिका के चरम समय में पूर्वबद्ध सातावेदनीय की जघन्य स्थिति-उदीरणा को करता है। इसी प्रकार असातावेदनीय की भी जघन्य स्थिति उदीरणा जानना चाहिये। किन्तु सातावेदनीय के स्थान में असातावेदनीय कहना चाहिये। यदि सातावेदनीय की जघन्य स्थिति-उदीरणा का कथन करना हो तो असातावेदनीय के स्थान में सातावेदनीय कहना चाहिये।
हास्य और रति की जघन्य स्थिति-उदीरणा साता के समान और अरति शोक की जघन्य स्थिति-उदीरणा असाता के समान जानना चाहिये।
. 'असमत्त' अर्थात् असमाप्त नाम अपर्याप्तक का है। जघन्य स्थिति सत्व वाला एकेन्द्रिय एकेन्द्रिय भव से निकलकर अपर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रियों के मध्य उत्पन्न हुआ और उत्त्पत्ति के प्रथम समय से लेकर पर्याप्त नामकर्म को बहुत बड़े अन्तर्मुहूर्त काल तक बांधता है। तत्पश्चात् पुनः अपर्याप्त नाम कर्म को बांधना प्रारंभ करता है । तब बंधावलिका के चरम समय में पूर्वबद्ध अपर्याप्त नामकर्म की जघन्य स्थिति-उदीरणा को करता है।
__ संहननपंचक के मध्य में से वेदन किये जाने वाले संहनन को छोड़कर शेष संहननों में से प्रत्येक का बंध काल अति दीर्घ कहना चाहिये। तब वेद्यमान संहनन की बंधावलिका के चरम समय