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उदीरणाकरण ]
आदि की बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, निद्रापंचक, आतप और उद्योत नाम की जघन्य स्थिति - उदीरणा
करता है।
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विशेषार्थ यहां पहले तीर्थंकर नामकर्म की बंधी हुई स्थिति को शुभ अध्यवसायों से अपवर्तना करके पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति को शेष किया। तत्पश्चात् अनन्तर समय में केवलज्ञान को उत्पन्न करते हुए उसकी उदीरणा करता है । उदीरणा करने के प्रथम समय में तीर्थंकर प्रकृति की उत्कृष्ट उदीरणा होती है। तीर्थंकर नामकर्म की इतने प्रमाण वाली उत्कृष्ट स्थिति ही सदा उदीरणा के योग्य प्राप्त होती है, इससे अधिक नहीं । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति - उदीरणा के स्वामित्व का विचार करने के बाद अब जघन्य स्थिति उदीरणा के स्वामित्व को बतलाते हैं - ' जहन्नगे इत्तो ' अर्थात् अब इसके बाद जघन्य स्थिति उदीरणा का स्वामित्व कहा जाता है ।
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जघन्य स्थिति - उदीरणा स्वामित्व
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'थावरे त्यादि' अर्थात् स्थावर जीव के जघन्य सबसे कम स्थिति सत्व है, उसके समान अथवा कुछ अधिक अल्प प्रमाण नवीन कर्म बंधक है, वही सर्व जघन्य स्थितिसत्कर्मा स्थावर एकेन्द्रिय जीव उसे बांधता हुआ बंधावलिका के बीतने पर आदि की बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, निद्रापंचक, आतप और उद्योत इन इक्कीस प्रकृतियों की जघन्य स्थिति - उदीरणा को करता है । यहां पर आतप और उद्योत को छोड़कर शेष उन्नीस प्रकृतियों के ध्रुवबंधी होने से तथा आतप और उद्योत
प्रतिपक्षी का अभाव होने से अन्यत्र इससे जघन्यतर स्थिति प्राप्त नहीं होती है इसलिये यथोक्त स्वरूप वाला एकेन्द्रिय जीव ही इन प्रकृतियों की जघन्य स्थिति उदीरणा का स्वामी होता है । तथ एगिंदियजोग्गाणं इयरा बंधित्तु आलिगं गंतुं । एगंदियाग तट्ठिए जाईणमवि एवं ॥ ३६ ॥ एगिंदियजोग्गाणं - एकेन्द्रिय प्रायोग्य, इयरा इतर, बंधित्तु – बांधकर, आलिगं आवलिका, तुं बीतने पर, एगिंदियागए - एकेन्द्रिय से आगत, स्थिति वाला (जघन्य स्थिति वाला), जाईणमवि अन्य जाति वाला भी, एवं
शब्दार्थ
तिट्ठिईए
उस
इस प्रकार ।
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गाथार्थ – एकेन्द्रिय प्रायोग्य से इतर प्रकृतियों को बांधकर और बंधावलिका के बीतने पर एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों की वह एकेन्द्रिय जीव जघन्य स्थिति - उदीरणा करता है । इसी प्रकार अन्य जातियों की जघन्य स्थिति - उदीरणा एकेन्द्रियों से आया हुआ और एकेन्द्रियों के योग्य जघन्य स्थिति वाला, उस जाति का वेदक द्वीन्द्रिय आदि जीव अपनी अपनी जाति की जघन्य स्थिति - उदीरणा को करता है ।