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उदीरणाकरण ]
घोषातिकी, नीम आदि के रस के समान' अशुभ होता है ।
स्थानसंज्ञा, घातिसंज्ञा और शुभ-अशुभ प्ररूपणा अनुभाग संक्रम के विवेचन में विस्तार से
कही जा चुकी है। इसलिये पुनः यहां विस्तार से नहीं करते हैं ।
विपाक चार प्रकार का होता है यथा १. पुद्गलविपाक, २. क्षेत्रविपाक, ३. भवविपाक और ४. जीवविपाक। इनमें से पुद्गलों का आश्रय करके जिस रस का विपाकोदय है वह पुद्गलविपाक कहलाता है। पुद्गलानधिकृत्य यस्य रसस्य विपाकोदयः स पुद्गलविपाकः । यह पुद्गलविपाक नामकर्म की निम्नलिखित छत्तीस प्रकृतियों का जानना चाहिये – संस्थानषट्क, संहननषट्क, आतप, शरीरपंचक अंगोपांगत्रिक उद्योत निर्माण स्थिर - अस्थिर, वर्णादि चतुष्क, अगुरुलघु, शुभ अशुभ, पराघात, उपघात, प्रत्येक और साधारण नाम । इन प्रकृतियों को पुद्गलविपाकी मानने का कारण यह है कि संस्थान नामकर्म आदि ये प्रकृतियां औदारिक आदि पुद्गलों का ही आश्रय करके अपना विपाक दिखाती हैं। इसलिये इनका रस पुद्गलविपाकी ही है ।
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प्रश्न -
इस युक्ति से रति-अरति प्रकृतियों का भी रस पुद्गलविपाकी ही प्राप्त होता है । वह इस प्रकार - कंटक (कांटे) आदि के स्पर्श से अरति का और माला चंदन आदि के स्पर्श से रति का विपाकोदय है अतः इन्हें पुद्गलविपाकी क्यों नहीं कहा ?
उत्तर
रति अरति के विपाक का पुद्गल के साथ व्यभिचार है । तथाहि काटे आदि के स्पर्श नहीं होने पर भी प्रिय और अप्रियजनों के स्मरणादि से कदाचित् रति और अरति का विपाकोदय देखा जाता है। इसलिये इन दोनों का अनुभाग जीवविपाकी मानना युक्तिसंगत है, पुद्गलविपाकी नहीं । इसी प्रकार क्रोधादि के विपाक के लिये जानना चाहिये। कहा भी है
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अरइरईणं उदओ किन्न भवे पोग्गलानि संपप्पा |
अप्पुट्ठेहि वि किन्नो ? एवं कोहाइयाणं पि ॥२
अर्थात् अरति और रति का उदय अर्थात् विपाकोदय पुद्गलों को प्राप्त हो कर क्यों नहीं होता है ? यानी होता ही है । तब उनका रस पुद्गलविपाकी क्यों नहीं कहा जाता ? इसका आचार्य युक्ति के द्वारा उत्तर देते हैं अप्पुट्ठेहि वि किन्नो अर्थात् पुद्गलों के स्पर्श नहीं करने पर भी क्या रति अरति इन दोनों का विपाकोदय नहीं होता है ? अर्थात् होता ही है । इसलिये पुद्गल के साथ व्यभिचार होने से
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१. ' क्षीर घोषातिकी' शब्द उपमा वाचक समझना चाहिये, न कि कर्म वर्गणाओं में उस प्रकार का रस होता है ।
२. पंच संग्रह तृतीय द्वार गाथा - १६५
- पंचसंग्रह तृतीय द्वार गाथा - १६५