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[ कर्मप्रकृति
विशेषार्थ – ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय तीन घातिकर्मों की उदीरणा क्षीणमोह गुणस्थान तक के सभी छद्मस्थ जीव करते हैं । मोहनीय कर्म की उदीरणा सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के सरागी जीव करते हैं । वेदनीय कर्म और आयुकर्म की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान के सभी प्रमत्त जीव करते हैं । केवल आयु कर्म की अंतिम आवलिका की उदीरणा नहीं होती है तथा नाम और गोत्र इन दो कर्मों के उदीरक सयोगी केवली गुणस्थान तक के सभी जीव होते हैं।
गाथा में आगत 'त्ति' इति शब्द मूल प्रकृतियों की उदीरणा की परिसमाप्ति का द्योतक जानना चाहिये कि मूल प्रकृतियों में से किस प्रकृति के उदीरक कौन कौन जीव हैं ?
___ इस प्रकार मूल प्रकृतियों की उदीरणा के स्वामियों का कथन करने के बाद अब उत्तर प्रकृतियों की उदीरणा के स्वामियों को बतलाते हैं -
विग्धावरणधुवाणं, छउमत्था जोगिणो उ धुवगाणं।
उवघायस्स तणुत्था, तणुकिट्टीणं तणुगरागा॥५॥ शब्दार्थ – विग्धावरणधुवाणं - अन्तराय, आवरणद्विक, इन ध्रुचोदयी प्रकृतियों के, छउमत्था – छद्मस्थ जीव, जोगिणो – सयोगी, उ – और, धुवगाणं – नामकर्म की, ध्रुवोदयी प्रकृतियों के, उवघायस्स – उपघात के, तणुत्था – शरीरस्थ, तणुकिट्टीणं - सूक्ष्म कृष्टीकृत, लोभ का, तणुगरागा - तनुक राग सूक्ष्मसंपरायी जीव।
गाथार्थ – अन्तराय ५, ज्ञानावरण ५ और ४ दर्शनावरण इन ध्रुवोदयी प्रकृतियों के उदीरक छद्मस्थ जीव हैं । नामकर्म की ध्रुवोदयी ३३ प्रकृतियों के उदीरक सयोगी जीव हैं और सूक्ष्म कृष्टीकृत लोभ के सूक्ष्मसंपरायी जीव उदीरक हैं।
विशेषार्थ – विग्ध अर्थात् अन्तराय कर्म, अन्तराय पंचक, ज्ञानावरण पंचक, और दर्शनावरण चतुष्क रूप चौदह ध्रुवोदयी प्रकृतियों के उदीरक सभी छदृमस्थ जीव हैं तथा ध्रुवगाणं त्ति अर्थात् नामकर्म की तैजससप्तक, वर्णादिवीस, स्थिर, अस्थिर, शुभ अशुभ, अगुरुलघु और निर्माण रूप कुल तेतीस ध्रुवोदयी प्रकृतियों के योगी अर्थात् सयोगी केवली गुणस्थान तक के सयोगी जीव उदीरक होते हैं । उपघात नामकर्म के तनुत्था शरीरस्य अर्थात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त जीव उदीरक होते हैं । तनुकिट्टीणं के अर्थात् संज्वलन लोभ संबंधी सूक्ष्म कृष्टियों के तनुकराग अर्थात् सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव जब तक चरम आवलि प्राप्त नहीं होती है तब तक उदीरक होते हैं। तथा –
तसबायरपजत्तग - सेयरगइ जाइदिट्ठिवेयाणं। आऊण य तन्नामा, पत्तेगियरस्स उ तणुत्था॥६॥