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[ कर्मप्रकृति
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५५ प्रकृतिक ५६ प्रकृतिक ५७ प्रकृतिक योग - ६
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इस प्रकार सयोगीकेवली के उदीरणास्थानों को जानना चाहिये। एकेन्द्रिय के उदीरणा स्थान
अब एकेन्द्रिय के उदीरणास्थानों का विचार करते हैं - एकेन्द्रिय के पाँच उदीरणास्थान होते हैं यथा – बयालीस, पचास, इक्यावन, बावन और तिरेपन।
- पूर्वोक्त ध्रुव उदीरणा वाली तेतीस प्रकृतियों के साथ तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावर नाम, एकेन्द्रिय जाति, सूक्ष्म बादर में से कोई एक, पर्याप्त अपर्याप्त में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय, यशःकीर्ति, अयश:कीर्ति में से कोई एक इन नौ प्रकृतियों को मिला देने पर बयालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। इस स्थान में पाँच भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं -
बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा पर्याप्त-अपर्याप्त, अयश:कीर्ति के साथ चार भंग होते हैं । बादर पर्याप्त और यश कीर्ति के साथ एक भंग होता है क्योंकि सूक्ष्म और अपर्याप्त के साथ यश:कीर्ति का उदय नहीं होता है और उदय के अभाव में उदीरणा भी नहीं होती है। इस कारण तदाश्रित विकल्प भी नहीं होता है। यह बयालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान अपान्तराल गति में वर्तमान एकेन्द्रिय जीव के जानना चाहिये।
इस बयालीस प्रकृतिक स्थान में शरीरस्थ एकेन्द्रिय के औदारिक शरीर , औदारिक संघात, औदारिक बंधनचतुष्क, हुंडक संस्थान उपघात, प्रत्येक और साधारण में से कोई एक इन नौ प्रकृतियों का प्रक्षेप करने पर और तिर्यंचानुपूर्वी को कम करने पर पचास प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। इस स्थान में दस भंग होते हैं यथा – बादर पर्याप्तक' के प्रत्येक साधारण और यश:कीर्ति, अयश:कीर्ति की अपेक्षा चार भंग, अपर्याप्तक बादर के प्रत्येक साधारण की अपेक्षा अयश कीर्ति के साथ दो भंग
और सूक्ष्म के पर्याप्त और प्रत्येक साधारण के द्वारा अयशःकीर्ति के साथ चार भंग इस प्रकार सब दस भंग होते हैं । विक्रिया करने वाले बादर वायुकाय के औदारिक षट्क के स्थान में वैक्रियषट्क जानना चाहिये, तब उसके भी पचास प्रकृतियां ही उदीरणा योग्य होती हैं। यहां पर केवल बादर पर्याप्त, १. यहां पर्याप्तक और अपर्याप्तक का अर्थ लब्धि पर्याप्त और लब्धि अपर्याप्त जानना चाहिये।