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उदीरणाकरण ]
[ १९१ इनमें से इक्यावन, तिरेपन, चउवन और पचपन प्रकृतिक उदीरणास्थान वैक्रियशरीर में वर्तमान तिर्यंच और मनुष्य के जानना चाहिये तथा स्वभावस्य और वैक्रियशरीर में वर्तमान तिर्यंच और मनुष्यों के ही छप्पन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है । उन्हीं उद्योत सहित तिर्यंच पंचेन्द्रियों के सत्तावन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है।
___ प्रमत्तसंयत गुणस्थान में पांच उदीरणास्थान होते हैं, यथा - इक्यावन, तिरेपन, चउवन, पचपन और छप्पन प्रकृतिक।
ये पांचों की उदीरणास्थान वैक्रियशरीरी अथवा आहारकशरीरी संयतों के जानना चाहिये। लेकिन इतना विशेष है कि छप्पन प्रकृतिक उदीरणास्थान औदारिक शरीरस्थ संयतों के भी होता है।
अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में दो उदीरणास्थान होते हैं, यथा पचपन और छप्पन प्रकृतिक।
इनमें से छप्पन प्रकृतिक उदीरणास्थान औदारिक शरीरस्थों के होता है। यहां कितने ही वैक्रिय शरीरस्थ अथवा आहारक शरीरस्थ और सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त संयतों के कितने ही काल तक 'अप्रमत्त भाव भी पाया जाता है, इसलिये उनके ये दोनों उक्त रूप उदीरणास्थान होते हैं।
___ अपूर्वकरण, अनिवृत्ति, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह गुणस्थानों में एक ही उदीरणास्थान होता है - "एगे पंचसुत्ति' जो छप्पन प्रकृतिक है, यह स्थान औदारिकशरीरस्थ संयतों के होता है।
सयोगीकेवली गुणस्थान में आठ उदीरणा स्थान होते हैं। एकम्मि अट्ठत्तिः यथा - इकतालीस, बयालीस, बावन, तिरेपन, चउवन, पचपन, छप्पन और सत्तावन प्रकृतिक।
इन सभी उदीरणास्थानों का पूर्व में विस्तार से कथन किया जा चुका है, अतः यहां पर पुनः उनका विचार नहीं करते हैं।
इस प्रकार गुणस्थानों में उदीरणास्थानों को जानना चाहिये। उदीरणास्थानों में प्राप्त भंग
प्रत्येक उदीरणास्थान में प्राप्त होने वाले भंगों का विचार करने के लिये गाथा में 'ट्ठाणे' इत्यादि पद दिया है। अर्थात् इकतालीस प्रकृतिक आदि क्रम वाले उदीरणास्थानों में भंग भी यथाक्रम से कही जाने वाली संख्या के अनुसार इस प्रकार जानना चाहिये -
इकतालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान में एक भंग होता है और वह अतीर्थंकर (सामान्य) केवली के होता है।