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उदीरणाकरण ]
[ २०१ तेतीस प्रकृतियों की जघन्य स्थिति-उदीरणा सयोगी केवली के चरम समय में होती हैं। जो सादि और अध्रुव है। उससे अन्य सभी अजघन्य स्थिति-उदीरणा है और वह अनादि है। ध्रुव और अध्रुव भंग पूर्ववत् क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये।
इन्हीं मिथ्यात्व आदि अड़तालीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य रूप शेष तीन विकल्प दो प्रकार के होते हैं, यथा - सादि और अध्रुव। वे इस प्रकार जानना चाहिये कि - इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति-उदीरणा उत्कृष्ट संक्लेश में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव के कुछ काल तक पायी जाती है। तत्पश्चात् कालान्तर में उसी जीव के अनुत्कृष्ट होती है। इसलिये वे दोनों ही सादि और अध्रुव है। जघन्य स्थिति-उदीरणा का पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है।
'सव्वविगप्पा य सेसाणं' अर्थात् ऊपर कही गई अड़तालीस प्रकृतियों से शेष रही एक सौ दस प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य रूप सभी विकल्प दो प्रकार के होते हैं, यथा- सादि और अध्रुव। उनकी सादिता और अध्रुवता अध्रुवोदयी होने से जानना चाहिये।
__ इस प्रकार स्थिति-उदीरणा की सादि अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये। स्थिति उदीरणा का अद्धाच्छेद और स्वामित्व अब अद्धाच्छेद और स्वामित्व का प्ररूपण करते हैं -
अद्धाच्छेओ सामित्तं, पि य ठिइसंकमे जहा नवरं।
तव्वेइसु निरयगईए, वावि तिसु हिट्ठिमखिईसु॥ ३२॥ शब्दार्थ – अद्धाच्छेओ - अद्धाच्छेद, सामित्तं - स्वामित्व, पि - भी, य - और, ठिइसंकमे – स्थितिसंक्रम में, जहा - यथा, नवरं - विशेष, तव्वेइसु - उसके वेदक के, निरयगईए वा वि - नरकगतिद्विक की, तिसु - तीन, हिट्ठिमखिईसु – नीचे की पृथ्वियों में।
गाथार्थ – अद्धाच्छेद और स्वामित्व भी स्थितिसंक्रम में कहे गये अनुसार जानना चाहिये। इतना विशेष है कि उदीरणा उस उस प्रकृति के वेदक जीव के होती है। नरकद्विक की उत्कृष्ट उदीरणा नीचे की तीन पृथ्वियों में होती है।
विशेषार्थ – अद्धाच्छेद और स्वामित्व का वर्णन जैसा पहले स्थितिसंक्रम में कहा है, वैसा यहां भी जानना चाहिये। केवल विशेषता यह है कि संक्रमकरण में स्थितिसंक्रम उन प्रकृतियों के अवेदक जीवों में भी होता है। क्योंकि उदय के अभाव में भी संक्रमण होता है, किन्तु स्थिति-उदीरणा उन प्रकृतियों का वेदन करने वाले जीवों में ही जानना चाहिये। क्योंकि उदय के अभाव में उदीरणा का अभाव माना गया है।