________________
२०२ ]
[ कर्मप्रकृति यह कथन अति संक्षेप में किया गया है, इसलिये अब उसका कुछ विशेष रूप से विचार करते हैं -
जिन कर्मों का उदय होने पर बंधोत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है, ऐसे ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्टय, तैजससप्तक, वर्णादि बीस प्रकृतियां निर्माण, अस्थिर, अशुभ, अगुरुलघु, मिथ्यात्व, सौलह कषाय, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुःस्वर, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, वैक्रिय- सप्तक, पंचेन्द्रिय जाति हुण्डकसंस्थान, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अशुभ विहायोगति और नीचगोत्र इन छियासी प्रकृतियों की बंधावलिका व्यतीत होने पर उदयावलिका से उपरितन सभी स्थिति उदीरणा के योग्य होती. है। बंधावलिका से रहित सभी स्थिति यत्स्थिति कहलाती है। यहां पर आवलिकाद्विक रूप अद्धाच्छेद है और उसके उदय वाले जीव उदीरणा के स्वामी होते हैं।
उक्त बंधोत्कृष्ट स्थिति वाली प्रकृतियों के अतिरिक्त मनुष्यगति, सातावेदनीय, स्थिरादिषट्क, हास्यादि षट्क, वेदत्रिक, शुभविहायोगति आदि के पांच संस्थान, आदि के पांच संहनन, उच्च गोत्र इन उनतीस प्रकृतियों के उदय होने पर संक्रमण से उत्कृष्ट स्थिति होती है। अतः इनकी तीन आवलिका से हीन सभी स्थिति उदीरणा के योग्य होती है। यह उदीरणा केवल उन्हीं कर्मों का वेदन करने वाले जीवों के जानना चाहिये। यहां बंधावलिका और संक्रमावलिका से रहित सर्व स्थिति यत्स्थिति है और तीन आवलिका रूप अद्धाच्छेद है तथा इन प्रकृतियों के उदय वाले जीव ही इनकी उदीरणा के स्वामी
इसी प्रकार आगे भी जितना जितना उदीरणा के अयोग्य काल है, उतना उतना अद्धाच्छेद है। अब कतिपय प्रकृतियों की स्थिति-उदीरणा के स्वामित्व के बारे में विशेष रूप से स्पष्टीकरण
करते हैं -
किसी मिथ्यादृष्टि जीव ने सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति को बांधा, तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक मिथ्यात्व का अनुभव कर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, तब सम्यक्त्व में और सम्यग्मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्त कम मिथ्यात्व की सभी स्थिति को संक्रमण करता है और संक्रमावलिका के बीत जाने पर वह स्थिति उदीरणा के योग्य हुई। वहां संक्रमावलिका के बीत जाने पर भी वह स्थिति अन्तर्मुहूर्त से कम ही है। तब सम्यक्त्व को अनुभव करते हुये सम्यक्त्व की अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति उदीरणा के योग्य है । तत्पश्चात् कोई सम्यक्त्वी सम्यक्त्व में अन्तर्मुहूर्त रह कर सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ, तब सम्यग्मिथ्यात्व को अनुभव करते हुये दो अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य होती है।