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[ कर्मप्रकृति ___ बयालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान में स्वमत से तीस भंग होते हैं। उनमें से नारकों की अपेक्षा एक, एकेन्द्रियों की अपेक्षा पांच, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा प्रत्येक के तीन-तीन भंग प्राप्त होते हैं । इस प्रकार इनके सर्व भंग नौ होते हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा पांच, मनुष्यों की अपेक्षा पांच, तीर्थंकर की अपेक्षा एक और देवों की अपेक्षा चार भंग होते हैं । इस प्रकार कुल भंग तीस होते हैं। लेकिन जो आचार्य सुभग-आदेय और दुर्भग अनादेय का पृथक् और युगपत् भी उदय मानते हैं उनके मत से बयालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान में बयालीस भंग होते हैं। क्यों कि उनके मत से तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा नौ भंग, मनुष्यों की अपेक्षा नौ भंग और देवों की अपेक्षा आठ भंग प्राप्त होते हैं। शेष भंग पूर्ववत् समझना चाहिये।
पचास प्रकृतिक उदीरणास्थान में ग्यारह भंग होते हैं और वे एकेन्द्रियों की अपेक्षा ही प्राप्त होते हैं। क्योंकि अन्य जीवों में पचास प्रकृतिक उदीरणास्थान नहीं पाया जाता है।
- इक्यावन प्रकृतिक उदीरणास्थान में स्वमत से इक्कीस भंग होते हैं। इनमें से नारकों की अपेक्षा एक भंग, एकेन्द्रियों की अपेक्षा सात भंग, वैक्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा चार भंग, वैक्रिय मनुष्यों की अपेक्षा चार भंग, आहारक शरीरी संयतों की अपेक्षा एक भंग और देवों की अपेक्षा चार भंग हैं । इस प्रकार सर्व भंग इक्कीस होते हैं लेकिन मतान्तर से इस इक्यावन प्रकृतिक स्थान में वैक्रिय तिर्यंच, मनुष्यों और देवों की अपेक्षा आठ-आठ भंग होते हैं। इसलिये उनकी अपेक्षा इक्यावन प्रकृतिक उदीरणास्थान में तेतीस भंग होते हैं।
_ 'सवार तिसयत्ति' अर्थात् बावन प्रकृतिक उदीरणास्थान में स्वमत से सर्व भंग तीन सौ बारह जानना चाहिये। उनमें एकेन्द्रियों की अपेक्षा तेरह, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की अपेक्षा प्रत्येक के तीन-तीन भंग होते हैं । इसलिये विकलत्रिक के नौ भंग होते हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा एक सौ पैंतालीस और मनुष्यों की अपेक्षा एक सौ पैंतालीस भंग होते हैं । इस प्रकार सर्व भंग तीन सौ बारह जानना चाहिये। यहां पर भी मतान्तर से तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों की अपेक्षा प्रत्येक के दो सौ नवासी, दो सौ नवासी भंग होते हैं । इसलिये उनके मतानुसार बावन प्रकृतिक उदीरणास्थान में छह सौ भंग प्राप्त होते हैं।
तिरेपन प्रकृतिक उदीरणास्थान में स्वमत से इक्कीस भंग होते हैं । वे इस प्रकार हैं - नारकों की अपेक्षा एक, एकेन्द्रियों की अपेक्षा छह, वैक्रिय तिर्यंचपंचेन्द्रियों की अपेक्षा चार, वैक्रिय मनुष्यों की अपेक्षा चार, आहारकशरीरी संयतों की अपेक्षा एक, तीर्थंकर की अपेक्षा एक और देवों की अपेक्षा चार भंग होते हैं । कुल मिलाकर इक्कीस भंग होते हैं। यहां पर भी मतान्तर से वैक्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय मनुष्य और देवों की अपेक्षा प्रत्येक के आठ-आठ भंग प्राप्त होते हैं । इसलिये उनकी अपेक्षा तिरेपन,