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बावन, चउवन, पचपन, छप्पन और सत्तावन प्रकृतिक ।
इनमें तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी पंचेन्द्रिय जाति, त्रस नाम, बादर नाम, पर्याप्त, अपर्याप्त में से कोई एक, सुभग आदेय और दुर्भग अनादेय युगल इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल यश: कीर्ति और अयश: कीर्ति में से कोई एक ये नौ प्रकृतियां, पूर्वोक्त ध्रुव उदीरणा वाली तेतीस प्रकृतियों के साथ मिलाने पर बयालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है । यह बयालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान अपान्तराल गति में वर्तमान जीव के जानना चाहिये । इस स्थान में पांच भंग होते हैं, इस प्रकार हैं कि पर्याप्त नामकर्म के उदय में वर्तमान जीव सुभग, आदेय युगल, दुर्भग, अनादेय युगल और यशःकीर्ति की अपेक्षा चार भंग होते हैं । अपर्याप्त नामकर्म के उदय में वर्तमान जीव के तो दुर्भग, अनादेय और अयश, कीर्ति की अपेक्षा एक ही भंग होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है।
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पर्यातक जीव की अपेक्षा -
१. यश: कीर्ति - सुभग - आदेय
२. यशःकीर्ति - दुर्भग - अनादेय
३. अयश: कीर्ति - सुभग - आदेय
४. अयश: कीर्ति - दुर्भग - अनादेय
तथा अपर्याप्तक जीव की अपेक्षा
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१. अयश: कीर्ति - दुर्भग - अनादेय
इस प्रकार पांच भंग होते हैं ।
[ कर्मप्रकृति
सुभग और आदेय अथवा दुर्भग और अनादेय एक साथ ही उदय को प्राप्त करते हैं । इसलिये इन दोनों की उदीरणा भी एक साथ ही होती है। अतः इस स्थान में पांच ही भंग होते हैं । किन्तु दूसरे आचार्यों का मत है कि सुभग और आदेय का तथा दुर्भग और अनादेय का एक साथ एकान्त से उदय होने का नियम नहीं है। क्योंकि अन्यथा भी देखा जाता है। इसलिये पर्याप्त नामकर्म के उदय में वर्तमान जीव के सुभग- दुर्भग, आदेय- अनादेय और यश: कीर्ति - अयश: कीर्ति की अपेक्षा आठ भंग होते हैं तथा अपर्याप्त नामकर्म के उदय में वर्तमान जीव के दुर्भग, अनादेय और अयश: कीर्ति का एक भंग होता है । इस प्रकार बयालीस प्रकृतिक उदीरणा स्थान में भंगों की सर्व संख्या नौ होती है ।
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तत्पश्चात् शरीरस्थ जीव के औदारिकसप्तक, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, उपघात और प्रत्येकनाम इन ग्यारह प्रकृतियों को मिलाने पर और