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उदीरणाकरण ]
[ १८१ तिर्यंचानुपूर्वी के निकालने पर बावन प्रकृतिक उदीरणा स्थान होता है। इस स्थान में एक सौ पैंतालीस भंग होते हैं। यथा - पर्याप्तक जीव के छह संस्थान, छह संहनन, सुभग आदेय युगल और दुर्भग अनादेय युगल तथा यश:कीर्ति और अयश:कीर्ति की अपेक्षा ६x६x२x२-१४४ एक सौ चवालीस भंग होते हैं तथा अपर्याप्तक जीव के हुण्डक संस्थान, सेवार्त संहनन, दुर्भग, अनादेय, और अयशःकीर्ति की अपेक्षा एक भंग होता है। इस प्रकार सर्वभंग एक सौ पैंतालीस हो जाते हैं।
__किन्तु जो आचार्य केवल सुभग आदेय का अथवा दुर्भग - अनादेय का तथा दोनों का युगपत भी उदय मानते हैं उनके मत से बावन प्रकृतिक उदीरणास्थान में दो सौ नवासी भंग जानना चाहिये। इस मत में पर्याप्त जीव के छह संस्थान, छह संहनन, सुभग-दुर्भग, आदेय, अनादेय, यश:कीर्ति और अयश:कीर्ति की अपेक्षा (६x६x२x२x२-२८८)दो सौ अठासी भंग होते हैं और अपर्याप्तक जीव के तो पूर्वोक्त स्वरूप वाला एक ही स्थान होता है इस प्रकार सर्व भंग दो सौ नवासी होते हैं।
इसी बावन प्रकृतिक उदीरणास्थान में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्तक जीव के पराघात, प्रशस्त और अप्रशस्त कोई एक विहायोगति के मिलाने पर चउवन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है । इस स्थान में पर्याप्त के जो पहले एक सौ चवालीस भंग कहे हैं वे ही विहायोगतिद्विक से गुणित जानना चाहिये और वैसा होने पर दो सौ अठासी भंग हो जाते हैं । मतान्तर की अपेक्षा तो पांच सौ छिहत्तर भंग होते हैं।
तत्पश्चात् प्राणापान पर्याप्ति से पर्याप्त जीव के उच्छ्वास मिलाने पर पचपन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। यहां पर भी पूर्व के समान दो सौ अठासी भंग होते हैं और मतान्तर से पाँच सौ छिहत्तर भंग होते हैं । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त जीव के उच्छ्वास नामकर्म के उदय नहीं होने पर तथा उद्योत नामकर्म के उदय होने पर पचपन प्रकृतिक उदीरणा स्थान होता है । इस स्थान में भी दोसौ अठासी भंग होते हैं और मतान्तर से पाँच सौ छिहत्तर भंग होते हैं । इस प्रकार पचपन प्रकृतिक उदीरणा स्थान में स्वमत की अपेक्षा सर्वभंग पाँच सौ छिहत्तर होते हैं और मतान्तर से ग्यारह सौ बावन होते हैं। ..
तत्पश्चात् भाषापर्याप्ति से पर्याप्त जीव के सुस्वर दुःस्वर में से किसी एक के मिलाने पर छप्पन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। उनमें स्वमत के अनुसार विचार करने पर जो उच्छ्वास के साथ दो सौ अठासी भंग पहले प्राप्त हुए हैं, वे यहां पर स्वर युगल से गुणित करने पर पाँच सौ छिहत्तर भंग प्राप्त होते हैं और मतान्तर से इस स्थान में ग्यारह सौ बावन भंग प्राप्त होते हैं । अथवा प्राणपान पर्याप्ति से पर्याप्त जीव के स्वर नामकर्म का उदय नहीं होने पर और उद्योत नामकर्म के उदय होने पर छप्पन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। यहां पर भी स्वमत से चिंतन करने पर पूर्व के समान दो सौ अठासी भंग और मतान्तर से पाँच सौ छिहत्तर भंग होते हैं । इस प्रकार छप्पन प्रकृतिक उदीरणास्थान में भंगों की सर्व संख्या स्वमत से आठ सौ चौसठ और मतान्तर से सत्रह सौ अट्ठाईस होती है।