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[ कर्मप्रकृति
छह सौ, छहअहिया
छह अधिक, नवसया
नौ
सौ, य – और एगहिया - एक अधिक, अउणुत्तराणि - उनहत्तर, चउदससयाणि - चौदह सौ,
गुणनउड् नवासी, पंचसया पांच सौ ।
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इगवीसा – इक्कीस, छच्चसया
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गाथार्थ नामकर्म के इकतालीस, बयालीय और पचास से लेकर सत्तावन प्रकृतिक तक के दस उदीरणास्थान होते हैं और मिथ्यात्व से लेकर प्रमत्त संयत गुणस्थान तक क्रम से नौ, सात, तीन, आठ, छह, पांच और अप्रमत्त में दो उदीरणास्थान होते हैं ।
ऊपर के पांच गुणस्थानों में एक और तदनन्तर एक गुणस्थान में आठ उदीरणा स्थान होते हैं । इन उदीरणा स्थानों के भंग क्रम से एक, तीस, ग्यारह, इक्कीस, तीन सौ बारह, इक्कीस, छह सौ छह, नौ सौ एक, चौदह सौ उनहत्तर, पांच सौ नवासी होते हैं ।
विशेषार्थ – नामकर्म के इकतालीस, बयालीस पचास, इक्यावन, पचपन, छप्पन और सत्तावन प्रकृतिक ये दस उदीरणा स्थान होते हैं । सयोगी केवली के उदीरणास्थान -
बावन,
तिरेपन, चउवन,
इन स्थानों में तैजससप्तक, वर्णादि बीस अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण, इन तेतीस प्रकृतियों की ध्रुव उदीरणा होती है। इनमें मनुष्यगति पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश: कीर्ति, इन आठ प्रकृतियों को मिलाने पर इकतालीस प्रकृतिक उदीरणा स्थान होता है । इन इकतालीस प्रकृतियों के उदीरक केवलीसमुद्घातगत और कार्मणकाययोग में वर्तमान सामान्य केवली भगवान होते हैं ।
इन्हीं इकतालीस प्रकृतियों में तीर्थंकर नाम को मिलाने पर वियालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है । इसके उदीरक केवलीसमुद्घात कार्मणकाययोग में वर्तमान तीर्थंकर केवली होते हैं ।
पूर्वोक्त इकतालीस प्रकृतिक उदीरणास्थान में औदारिकसप्तक छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान वज्रऋषभनाराचसंहनन, उपघात और प्रत्येक नाम इन ग्यारह प्रकृतियों को मिलाने पर बावन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है इसमें छह संस्थानों की अपेक्षा छह भंग होते हैं। वे वक्ष्यमान सामान्य मनुष्य के भंगों में ग्रहण करने से ग्रहण किये गये जानना चाहिये । इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिये। इस बावन प्रकृतिक उदीरणास्थान के उदीरक केवलीसमुद्रघातगत औदारिक, मिश्रकाययोग में वर्तमान सयोगीकेवली होते हैं ।
इसी बावन प्रकृतिक स्थान में तीर्थंकर नामकर्म को मिलाने पर तिरेपन प्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। इसमें केवल समचतुरस्रसंस्थान कहना चाहिये । इस स्थान के उदीरक भी औदारिक,