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[ १७३
उदीरणाकरण ]
ज्ञातव्य १. गाथा में सामान्य से विरत शब्द के द्वारा प्रमत्त और अप्रमत्त दोनों प्रकार के विरतों का
ग्रहण करके पृथक् पृथक् उनकी चौबीसी और भंगों का विवेचन नहीं किया गया है। लेकिन सरलता से समझने के लिये प्रारूप में उनकी चौबीसी और भंगों का पृथक् पृथक् उल्लेख किया गया है।
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२. गाथा में विरत गुणस्थान तक की चौबीसी और भंगों को बतलाया है लेकिन अपूर्वकरण गुणस्थान संबंधी ४, ५, ६ प्रकृतिक उदीरणा स्थानों की चौबीसी और उनके भंगों का उल्लेख नहीं किया गया है, जिन्हें स्पष्टतया समझने के लिये तथा अनिवृतिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानों में भंगों को यहां पृथक् से बतलाया है ।
३. उक्त दोनों स्थितियों को ध्यान में रखकर सामान्य से विरत को ग्रहण करके एक प्रकृतिक उदीरणा स्थान तक की ४० चौबीसियां और १०२५ भंगों तथा विरत के प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो भेदों की अपेक्षा अधिक आठ और अपूर्वकरण की चार कुल १२ चौबीसियों और इनके भंगों को अलग से दर्शाकर प्रारूप में सब चौबीसियों और उनके कुल भंगों का योग बतलाया है ।
इस प्रकार मोहनीय कर्म के उदीरणास्थानों का विवेचन जानना चाहिये । नामकर्म के उदीरणा स्थान
अब नामकर्म के उदीरणास्थानों का प्रतिपादन करते हैं
एगबियालापण्णाइ, सत्तपण्णांत गुणिसु नामस्स । नव सत्त तिणि अट्ठ य, छ पंच य अप्पमत्ते दो ॥ २५ ॥ एक्कं पंचसु एक्कम्मि, अट्ठट्ठाणक्कमेण भंगा वि । एक्कग तीसेक्कारस, इगवीस सबार तिसए य ॥ २६ ॥
इगवीसा छच्च सया, छहअहिया नवसया य एगहिया । अउणुत्तराणि चउदस-सयाणि गुणनउड़ पंचसया ॥ २७ ॥
शब्दार्थ – एगबियाला - इकतालीस, बयालीस, पण्णाई - पचास आदि, सत्तपणांतसत्तावन तक, गुणिसु - गुणस्थानों में, नामस्स - नामकर्म के, नवसत्ततिण्णिअट्ठ – नौ, सात, तीन, आठ, छ पंच छह, पांच, य और अप्पमत्
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अप्रमत्त में, दो दो।
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एक्कं – एक, पंचसु – पांच गुणस्थानों में, एक्कम्मि – एक गुणस्थान में, अट्ठ - आठ, ट्ठाणक्कमेण – स्थान के क्रम से, भंगावि - भंग भी, एक्कग – एक, तीसेक्कारस – तीस, ग्यारह, इगवीस – इक्कीस, सबार बारह सहित, तिस तीन सौ य और ।
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