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उदीरणाकरण ]
[ १५७ तथा जो बादर वायुकायिक जीव और जो दुर्भग नामकर्म के उदय वाले लब्धि से पर्याप्त हैं ऐसे सभी जीव वैक्रियशरीर नामकर्म के उदीरक होते हैं तथा –
__वेउव्विउवंगाए तणुतुल्ला, पवणबायरं हिच्चा।
आहारगाए विरओ, विउव्वयंतो पमत्तो य॥९॥ शब्दार्थ – वेउव्विउवंगाए - वैक्रिय अंगोपांग के, तणुतुल्ला - वैक्रिय शरीर तुल्य, पवण बायरं – बादर वायुकायिक जीवों को, हिच्चा – छोड़कर, आहारगाए - आहारकशरीर के, विरओ - विरत (संयत) विउव्वयंतो - विक्रिया करता हुआ, पमत्तो - प्रमत्त, य - और।
गाथार्थ – वैक्रिय अंगोपांग के उदीरक बादर वायुकायिक जीवों को छोड़कर वैक्रियशरीर के उदीरक के समान जानना चाहिये और आहारकशरीर नामकर्म का उदीरक आहारकशरीर की विक्रिया करता हुआ प्रमत्त संयत जानना चाहिये।
_ विशेषार्थ – वैक्रिय अंगोपांग नामकर्म के उदीरक तनुतुल्य अर्थात् वैक्रिय शरीर के उदीरक समान जानना चाहिये। अर्थात् वैक्रिय शरीर नामकर्म की उदीरणा करने वाले जो जीव पहले कहे गये हैं, वे ही वैक्रिय अंगोपांग नामकर्म के भी उदीरक जानना चाहिये।
प्रश्न – क्या सभी को?
उत्तर – नहीं, किन्तु बादर पवन अर्थात् बादर वायुकायिक जीवों को छोड़कर शेष सभी जीवों को उदीरक जानना चाहिये।
'आहारगाए' इत्यादि अर्थात् आहारक शरीर नामकर्म का उदीरक आहारक शरीर की विक्रिया करता हुआ प्रमाद भाव को प्राप्त प्रमत्त संयत होता है। तथा –
छण्हं संठाणाणं, संघयणाणं च सगलतिरियनरा।
देहत्था पजत्ता, उत्तमसंघयणिणो सेढी॥१०॥ शब्दार्थ – छण्हं – छह, संठाणाणं - संस्थानों के, संघयणाणं – संहननों के, च - और, सगलतिरियनरा - सर्व तिर्यंच मनुष्य, देहत्था - शरीरस्थ, पजत्ता - पर्याप्त, उत्तमसंघयणिणो- उत्तम संहनन (वज्रऋषभनाराचसंहनन) वाले के, सेढी - क्षपक श्रेणी।
१. यहां ग्रन्थकार ने आहारक बंधनचतुष्क, आहारकसंघात और आहारक अंगोपांग इन छह प्रकृतियों के उदीरक का संकेत नहीं किया है। परंतु आहारक शरीर के उपलक्षण से इन छह प्रकृतियों का उदीरक भी आहारक शरीर के उदीरक को समझना चाहिये।