________________
[ १६९
उदीरणाकरण ]
चौबीसी प्राप्त होती है तथा पूर्वोक्त इसी तरह छह प्रकृतिक उदीरणास्थान में भय, जुगुप्सा के अथवा भय, वेदक सम्यक्त्व के अथवा जुगुप्सा और बेदक सम्यक्त्व के युगपत प्रक्षेपण करने पर आठ प्रकृतियों की उदीरणा होती है। यहां पर एक एक विकल्प में भंगों की एक एक चौबीसी प्राप्त होती है। इसलिये भंगों की तीन चौबीसी होती हैं तथा पूर्वोक्त छह प्रकृतिक उदीरणास्थान में भय, जुगुप्सा और वेदक सम्यक्त्व इन तीनों का युगपत प्रक्षेप करने पर नौ प्रकृतियों की उदीरणा होती है । इस नौ प्रकृतिक उदीरणास्थान में भंगों की एक चौबीसी प्राप्त होती है ।
देशविरत गुणस्थान अविरत सम्ययग्दृष्टि गुणस्थान के अनन्तर परम्मि पंचाई अट्ठ अर्थात् देशविरत गुणस्थान में पांच आदि लेकर आठ तक के चार उदीरणास्थान होते हैं यथा – पांच, छह, सात, आठ । जो इस प्रकार हैं
—
-
प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन संज्ञक क्रोधादिक कषायों में से कोई दो क्रोधादिक, तीन 'वेदों में से कोई एक वेद, युगलद्विक में से कोई एक युगल इन पांच प्रकृतियों की देशविरत के ध्रुवउदीरणा होती है, जो औपशमिक सम्यग्दृष्टि अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के जानना चाहिये । इस पंचप्रकृतिक उदीरणास्थान में पूर्वोक्त क्रम से भंगों की एक चौबीसी प्राप्त होती है। इसी पंच प्रकृतिक उदीरणास्थान में भय, जुगुप्सा और वेदक सम्यक्त्व इनमें से किसी एक के मिलाने पर छह की उदीरणा होती है । इस छह प्रकृतिक उदीरणास्थान में भय आदि की अपेक्षा तीन विकल्प होते हैं और एक एक विकल्प में भंगों की एक एक चौबीसी होती है। इसलिये इस स्थान में भंगों की तीन चौबीसी होती हैं । उसी पूर्वोक्त पंचप्रकृतिक उदीरणास्थान में भय, जुगुप्सा का अथवा भय, वेदक सम्यक्त्व का अथवा जुगुप्सा, वेदक सम्यक्त्व का एक साथ प्रक्षेपण करने पर सात प्रकृतियों की उदीरणा होती है । यहां पर भी भंगों की तीन चौबीसी होती हैं तथा इसी पूर्वोक्त पंचप्रकृतिक उदीरणास्थान में भय, जुगुप्सा और वेदक सम्यक्त्व का युगपत प्रक्षेपण करने पर आठ की उदीरणा होती है । इस अष्ट प्रकृतिक उदीरणास्थान में भंगों की एक चौबीसी प्राप्त होती है ।
प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान इन दोनों गुणस्थानों में उदीरणास्थानों के भेदों का अभाव होने से दोनों के उदीरणास्थानों को एक साथ कहने के लिये गाथा में संकेत दिया है - विरए य चउराइ सत्तति, अर्थात् प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत में चार से लेकर सात प्रकृतिक तक के चार उदीरणास्थान होते हैं यथा चार, पांच, छह, सात ।
-
संज्वलन क्रोधादि में से कोई एक क्रोधादि, तीन वेदों में से कोई एक वेद, युगलद्विक में से कोई एक युगल, इन चार प्रकृतियों की क्षायिक संम्यग्दृष्टि अथवा औपशमिक सम्यग्दृष्टि विरत के ध्रुव उदीरणा होती है। इस उदीरणास्थान में भंगों की एक चौबीसी होती है। इसी चतुष्क में भय,