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[कर्मप्रकृति विशेषार्थ - आतप नामकर्म के उदीरक बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं। गाथा में आगत पहला 'य' शब्द अनुक्त अर्थ पर्याप्त का बोधक है। इसलिये उससे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त यह अर्थ लना चाहिये तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों और सूक्ष्म त्रसों अर्थात् तैजसकायिक और वायुकायिक जीवों को छोड़ कर शेष सभी तिर्यंच – पृथ्वी, जल, वनस्पति कायिक विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय लब्धि पर्याप्त जीव उद्योत नामकर्म के यथासंभव उदीरक होते हैं तथा उत्तर देह अर्थात् उत्तर शरीर में यथासंभव वैक्रिय और आहारक शरीर में वर्तमान देव और साधु भी उद्योत नामकर्म के उदीरक होते हैं तथा -
सगलो य इट्ठखगई उत्तर तणुदेव भोगभूमिगया।
इट्ठसराए तसो वि य, इयरासि तसा सनेरइया॥१४॥ शब्दार्थ – सगलो - सभी, य - और, इट्ठखगई – प्रशस्त विहायोगति, उत्तरतणु - उत्तर शरीरी, देव - देव, भोगभूमिगया – भोगभूमिज, इट्ठसराए - सुस्वर, तसो वि - त्रस भी, य - और, इयरासि - इतर में, तसा - त्रस, सनेरइया – नारक जीवों सहित।
___ गाथार्थ – प्रशस्तविहायोगति के उदीरक सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और उत्तर शरीर वाले देव और भोगभूमिज जीव होते हैं। सुस्वर नामकर्म के उदीरक त्रस जीव तथा इनसे इतर अर्थात् अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर के उदीरक नारकी (द्वीन्द्रियादिक) सहित त्रस जीव होते हैं।
विशेषार्थ – 'सगलोत्ति' अर्थात् सकल पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य जो शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त हैं तथा प्रशस्त विहायोगति के उदय में वर्तमान हैं तथा वैक्रिय शरीर रूप उत्तरशरीर में वर्तमान जो सभी तिर्यंच और मनुष्य हैं तथा सभी देव और भोगभूमिज मनुष्य तिर्यंच इष्ट खगति अर्थात् प्रशस्त विहायोगति के उदीरक होते हैं तथा इष्ट स्वर अर्थात् सुस्वर नामकर्म के द्वीन्द्रियादि त्रस जीव उदीरक हैं और गाथोक्त 'अपि' शब्द से पूर्वोक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचादि जीव जो कि भाषापर्याप्ति से पर्याप्त हैं वे भी यथासंभव उदीरक होते हैं।
पूर्वोक्त से इतर अर्थात् अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर नामकर्म के त्रस – विकलेन्द्रिय ' और नारकी तथा यथासंभव कितने ही तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य जीव भी उदीरक जानना चाहिये। तथा -
उस्सासस्स सराण य, पज्जत्ता आणपाणभासासु।
सव्वण्णूणुस्सासो भासा वि य जा न रुझंति॥१५॥ शब्दार्थ – उस्सासस्स – श्वासोच्छ्वास के, सराण - स्वर के, पज्जत्ता - पर्याप्त,