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[ कर्मप्रकृति
शब्दार्थ – वेयणियाण - वेदनीयद्विक के, पमत्ता - प्रमत्त जीव, ते ते - उन उन, बंधंतगा – बंधक जीव, कसायाणं – कषायों के, हासाईछक्कस्स – हास्यादि षट्क के य - और, अपुव्वकरणस्स - अपूर्वकरण के, चरमंते - चरम समय तक के जीव।
___ गाथार्थ – वेदनीयद्विक के उदीरक प्रमत्तगुणस्थान तक के जीव होते हैं और जो जीव जिन कषायों के बंधक हैं वे उन उन कषायों के उदीरक हैं तथा हास्यादि षट्क के उदीरक अपूर्वकरण के चरम समयवर्ती जीव हैं।
विशेषार्थ – साता असाता दोनों वेदनीय कर्मों के उदीरक प्रमत्त अर्थात् प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के सभी जीव होते हैं।
जो जो जीव जिन जिन कषायों के बंधक होते हैं वे जीव उन उन कषायों के उदीरक जानना चाहिये। क्योंकि जो जीव जिन कषायों को वेदता है अर्थात् उदय रूप से अनुभव करता है, वह उन्हीं कषायों को बांधता है और जे वेयइ से बंधइ ऐसा सिद्धांत है तथा उदय होने पर ही उदीरणा होती है ऐसा नियम है। इसलिये यह युक्तिसंगत ही कहा है कि ते ते बंधंतगा कसायाणं। इनमें मिथ्यादृष्टि और सास्वादन सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधी कषायों के उदीरक होते हैं । क्योंकि वे उनके वेदक हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीव अप्रत्याख्यानावरण कषायों के, देशविरत गुणस्थान तक के जीव प्रत्याख्यानावरण कषायों के उदीरक होते हैं और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों के उदीरक जीव अपने अपने बंधविच्छेद से पूर्व तक जानना चाहिये। हास्यादिषट्क के उदीरक अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त के जीव होते हैं। तथा –
जावूणखणो पढमो सुहरइहासाणमेवमियरासिं।
देवा नेरइया वि य, भवट्ठिई केइ नेरइया॥२१॥ शब्दार्थ – जावूणखणो पढमो - उत्पन्न होने के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक, सुहरइहासाणंसातावेदनीय रति और हास्य के, एवमियरासिं - इसी तरह इनसे इतर के, देवा - देव, नेरइयावि - नारक भी, य - और, भवट्ठिई - भवस्थिति तक, केइ - कितने ही, नेरइया – नारक।
गाथार्थ - उत्पन्न होने के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक सभी देव सातावेदनीय, रति और हास्य इन तीन प्रकृतियों के उदीरक होते हैं। इसी तरह इनके इतर अर्थात् असातावेदनीय, अरति और शोक के उदीरक सभी नारक होते हैं। किन्तु कितने ही नारक भवस्थिति तक भी इन तीनों प्रकृतियों के उदीरक
विशेषार्थ – जब तक प्रथम क्षण (मुहूर्त) कुछ कम रहता है, अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्त तक