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[ कर्मप्रकृति सात, आठ, नौ, दस।
सप्त प्रकृतिक उदीरणास्थान में मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादिकों में अन्यतम तीन क्रोधादिक लेना चाहिये। क्योंकि एक क्रोध की उदीरणा होने पर सभी क्रोध उदीरणा को प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार मान, माया और लोभ भी जानना चाहिये। क्रोध, मान, माया
और लोभ इन चारों कषायों का एक साथ उदय न होने से एक साथ उदीरणा नहीं होती है किन्तु तीन क्रोधों की अथवा तीन मानों की अथवा तीन माया की अथवा तीन लोभों की युगपत उदीरणा होती है, इसलिये एक समय में उक्त चारों कषायों में से कोई तीन क्रोधादि ग्रहण किये जाते हैं तथा तीनों वेदों में से कोई एक वेद और हास्य रति युगल और अरति शोक युगल इन दोनों में से एक युगल, इन सात प्रकृतियों की मिथ्यादृष्टि में ध्रुव उदीरणा होती है । इस सप्त प्रकृतिक उदीरणास्थान में चौबीस भंग होते हैं, तथा –
हास्य रति युगल में और अरति शोक युगल में प्रत्येक का एक एक भंग प्राप्त होता है । इस प्रकार दो भंग हुए ये दोनों भंग तीनों ही वेदों में प्राप्त होते हैं इसलिये दोनों का तीन से गुणा करने पर २४३-६ छह भंग हो जाते हैं । ये प्रत्येक छह भंग चारों क्रोधादि कषायों में पाये जाते हैं । इसलिये छह को चार से गुणा करने पर चौबीस भंग हो जाते हैं।
- उक्त सप्तप्रकृतिक उदीरणास्थान में भय अथवा जुगुप्सा अथवा अनन्तानुबंधी इन तीन में से किसी एक को मिला देने पर आठ प्रकृतियों की उदीरणा होती है। यहां पर भय आदि में से एक एक के चौबीस भंग प्राप्त होते हैं इसलिये इस अष्टप्रकृतिक उदीरणास्थान में तीन चौबीसी प्रमाण भंग जानना चाहिये।
प्रश्न – मिथ्यादृष्टि जीव के अनन्तानुबंधी कषायों का उदय अवश्य संभव है और उदय होने पर उदीरणा भी अवश्य संभव है, तो फिर अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से रहित मिथ्यादृष्टि कैसे प्राप्त होगा ? जिससे उसके अनन्तानुबंधी से रहित सात प्रकृतियों की अथवा आठ प्रकृतियों की उदीरणा संभव हो?
उत्तर – सम्यग्दृष्टि होते हुए किसी जीव ने सर्वप्रथम अनन्तानुबंधी की विसंयोजना की और इतना मात्र (करके)रुक गया किन्तु उस प्रकार की सामग्री के अभाव से मिथ्यात्व आदि दर्शनमोह की प्रकृतियों के क्षय के लिये उद्यत नहीं हुआ। पुनः कालान्तर में मिथ्यात्व को प्राप्त होता हुआ मिथ्यात्व के प्रत्यय (निमित्त) से पुनः अनन्तानुबंधी कषायों को बांधता है तब बंधावलिका जब तक नहीं बीतती है तब तक उस मिथ्यादृष्टि जीव के उन अनन्तानुबंधी कषायों का उदय नहीं होता है और उदय के अभाव से उसके उदीरणा का भी अभाव रहता है। किन्तु बंधावलिका के बीत जाने पर उदय संभव होने