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उदीरणाकरण ]
[ १५९ संघयणाणि न उत्तर-तणूसु तन्नामगा भवंतरगा।
अणुपुव्वीणं परघा-यस्स उ देहेण पज्जत्ता॥१२॥ शब्दार्थ – संघयणाणि -- संहनन, न – नहीं, उत्तरतणूसु - उत्तर शरीर वालों में, तन्नामगा – उस नाम वाले, भवंतरगा - भवान्तरगति वाले (विग्रहगति में वर्तमान) अणुपुव्वीणंआनुपूर्वी कर्म के, परघायस्स – पराघात के, उ – और, देहेण - देह (शरीर से) पज्जत्ता - पर्याप्त।
गाथार्थ – उत्तर शरीर वालों में संहनन नहीं होते हैं । अत: वे संहननों के उदीरक नहीं होते हैं। भवान्तरगति (विग्रहगति) में वर्तमान जीव उस उस नाम वाले आनुपूर्वी नामकर्म के उदीरक हैं और पराघात नामकर्म के उंदीरक शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त जीव होते हैं।
विशेषार्थ – 'उत्तरतणूसु त्ति' यानि वैक्रिय और आहारक रूप उत्तर शरीरों में संहनन नहीं होते हैं । अर्थात् छह संहननों में से एक भी संहनन का उनमें उदय नहीं होता है, इसलिये वे किसी भी संहनन की उदीरणा नहीं करते हैं तथा नरकानुपूर्वी आदि चारों आनुपूर्वियों के तन्नामक अर्थात् उस आनुपूर्वी के अनुयायी नारक आदि नाम वाले जीव जो भव की अपरान्तराल गति (विग्रहगति) में वर्तमान हैं, वे उस उस आनुपूर्वी नामकर्म के उदीरक जानना चाहिये। जैसे कि नारकानुपूर्वी का भवअपान्तराल गति में वर्तमान नारक जीव उदीरक होता है। तिर्यंचानुपूर्वी का अपान्तराल गति में वर्तमान तिर्यंच उदीरक होता है। इसी प्रकार मनुष्यानुपूर्वी और देवानुपूर्वी के लिये भी जानना चाहिये तथा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त सभी जीव पराघात नामकर्म के उदीरक' होते हैं। तथा –
बायरपुढवी आया - वस्स य वज्जित्तु सुहुमसुहुमतसे।
उज्जोयस्स य तिरिओ, उत्तरदेहो य देवजई॥१३॥ शब्दार्थ – बायरपुढवी – बादर पृथ्वीकायिक, आयावस्स - आतप नाम के, य - और, वजित्तु – छोड़कर, सुहुम - सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सुहुमतसे – सूक्ष्म त्रस जीव, तैजसकायिक, वायुकायिक, उज्जोयस्स - उद्योत के, य - और, तिरिओ - तिर्यंच जीव, उत्तरदेहो - उत्तर देह वाले, य - और, देवजई – देव व यति।
गाथार्थ - बादर पृथ्वीकायिक जीव आतप नामकर्म के उदीरक होते है तथा उद्योत नामकर्म के सूक्ष्म एकेन्द्रिय और सूक्ष्म त्रस (तैजसकायिक, वायुकायिक) जीवों को छोड़कर शेष तिर्यंच जीव तथा उत्तर वैक्रिय शरीर वाले देव एवं यति उदीरक हैं। १. मूल टीका में 'सर्वेडऽप्युदीरका' के अन्तर्गत अपि' शब्द से 'वैक्रिय शरीरीतियंच' गृहीत किये गये हैं।