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[ कर्मप्रकृति
गाथार्थ – छहों संस्थानों और छहों संहननों के उदीरक देहस्थ लब्धि पर्याप्तक सभी मनुष्य और तिर्यंच होते हैं। श्रेणी अर्थात् क्षपकश्रेणी उत्तम संहनन अर्थात् वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले जीव के ही होती है।
विशेषार्थ – देहस्थ अर्थात् शरीर नामकर्म के उदय में वर्तमान जो समस्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य हैं और लब्धि से पर्याप्त हैं वह छहों संस्थानों और छहों संहननों के उदीरक होते हैं।
लेकिन यहां यह ज्ञातव्य है कि उदय प्राप्त कर्मों की ही उदीरणा होती है, अन्य की नहीं। इसलिये जिसके जो संस्थान और संहनन उदय को प्राप्त होता है तब उसी की उदीरणा होती है। अन्य की नहीं, ऐसा जानना चाहिये तथा उत्तम संहनन अर्थात् वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले जीव के ही श्रेणी क्षपकश्रेणी होती है शेष संहनन वालों के क्षपकश्रेणी नहीं होती है। इसलिये क्षपकश्रेणी को प्राप्त जीव वज्रऋषभनाराचसंहनन की ही उदीरणा करते हैं, शेष संहननों का उनके उदय नहीं होने से उसकी उदीरणा भी नहीं करते हैं । यथा -
चउरंसस्स तणुत्था, उत्तरतणुसगल भोगभूमिगया।
देवा इयरे हुंडा तस तिरियनरा य सेवट्टा॥११॥ शब्दार्थ – चउरंसस्स - समचतुरस्र (संस्थान के) तणुत्था – शरीरस्थ (देहधारी) उत्तरतणु - आहारक और उत्तर वैक्रिय जघन्य शरीर वाले, सगलभोगभूमिगया – समस्त भोगभूमिज मनुष्य तिर्यंच, देवा – देव, इयरे – इतर, हुंडा - हुंडकसंस्थान, तसतिरियनरा – त्रस जीव और तिर्यंच मनुष्य, य - और, सेवट्टा - सेवार्त संहनन।
___गाथार्थ – आहारक और उत्तर वैक्रिय शरीर वाले तथा शरीरस्थ समस्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच मनुष्य तथा भोगभूमिज तिर्यंच और मनुष्य और देव समचतुरस्र संस्थान के तथा इनसे इतर जीव हुंडक संस्थान के उदीरक हैं और सेवार्त संहनन के भी उक्त त्रस, तिर्यंच और मनुष्य उदीरक होते हैं।
विशेषार्थ – समचतुरस्र संस्थान वाले शरीर में स्थित मनुष्य तिर्यंच और आहारकशरीर और वैक्रियशरीर की उत्तर विक्रिया करने वाले जीव तथा सम्पूर्ण मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच और देव उदीरक होते हैं । इयरे हुंडा अर्थात् ऊपर कहे गये जीवों से शेष रहे हुए शरीरस्थ एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, नारक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय मनुष्य तिर्यंच हुंडक संस्थान के उदीरक हैं।
'तसतिरियनरा य सेवा त्ति' इस वाक्य में इतर पद की अनुवृत्ति होती है। अतः तदनुसार उक्त जीवों से शेष रहे जो द्वीन्द्रियादिक और पंचेन्द्रिय तिर्यंच मनुष्य हैं वे सेवार्त्त संहनन के उदीरक होते हैं। तथा -