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उदीरणाकरण ]
[ १५५ शब्दार्थ – तसबायरपज्जत्तग-सेयर – त्रस, बादर पर्याप्त, इतर सहित, गइ - गति, जाइ- जाति, दिट्ठि - दर्शन, वेयाणं - वेद, आउण - आयुकर्म, य - और, तन्नामा - उस नाम वाली प्रकृति का उदय वाला, पत्तेगियरस्स - प्रत्येक और (इतर), उ – और, तणुत्था – शरीरस्थ जीव ।
. गाथार्थ - त्रस, बादर, पर्याप्त और इनसे इतर स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्त तथा गतिचतुष्क, जातिपंचक, दर्शनमोहत्रिक, वेदत्रिक, और आयु चतुष्टय, इन के उदीरक उस नाम वाली प्रकृति के उदय वाले जीव होते हैं। प्रत्येक और इतर अर्थात् साधारण नामकर्म के उदीरक शरीरपर्याप्ति वाले जीव हैं।
विशेषार्थ – त्रस बादर और पर्याप्त और इनसे इतर अर्थात् सप्रतिपक्षी स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्त तथा चार गति, पांच जाति, मिथ्यादर्शनादि तीन दर्शनमोहनीय की प्रकृतियां, नपुंसकवेद, आदि तीनों वेद, चार आयुकर्म इस प्रकार कुल मिलाकर पच्चीस प्रकृतियों के उदीरक यथायोग्य उस उस प्रकृति के नाम वाले जीव होते हैं, यथा – त्रस नामकर्म के उदीरक त्रस जीव होते हैं। वे . अपान्तराल गति में और शरीर में वर्तमान रहते हुए त्रस नामकर्म की उदीरणा करते हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त सभी प्रकृतियों की उदीरणा करने वालों के लिये समझ लेना चाहिये तथा प्रत्येक नाम और इत्तर अर्थात् साधारण नामकर्म के उदीरक तनुत्थ शरीरस्थाः अर्थात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त जीव होते हैं। इस प्रकार यथाक्रम से यह अर्थ हुआ कि प्रत्येकशरीर के उदीरक सभी प्रत्येकशरीरी जीव होते हैं और साधारणशरीर के उदीरक सभी साधारणशरीरी जीव होते हैं तथा – १. टीकार्तगत तथा शब्द ऊपर की उदीरक संबंधी प्रक्रिया के साथ संबंध जोड़ता है। तथा उसी विषय को आगे बढ़ाता है कि प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति के जीव शरीरस्थ होते हैं । शरीरस्थ के दो अर्थ लिये जाते हैं। कार्मण शरीरस्थ और औदारिक शरीरस्थ।
कार्मण शरीरस्थ जीव भी उदीरक होते हैं और औदारिक शरीरस्थ जीव भी उदीरक अवस्था से सम्पन्न होते हैं। यहां टीका में जो "शरीर पर्याप्त्या पर्याप्त" शब्द का प्रयोग किया गया है उसका संबंध नामकर्म के उदय से प्राप्त जो औदारिक शरीर है उसे शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त लेना चाहिये इसका तात्पर्य यह है कि आहार पर्याप्ति के बाद जो शरीर पर्याप्ति प्राप्त करने वाले जीव हैं जब वे शरीर पर्याप्ति को पूर्ण कर लेते हैं तब वे शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हो जाते हैं । परन्तु एकेन्द्रिय शरीर की अन्य पर्याप्तियों की अपेक्षा से वे अपर्याप्त है। टीकाकार ने जो लिखा है "शरीर पर्याप्त्या पर्याप्त" इसका स्पष्टीकरण यह हो सकता है कि जो शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त हैं वे उपर्युक्त प्रकृतियों के उदीरक हैं। जितनी पर्याप्तियां औदारिक शरीरी एकेन्द्रिय के होनी चाहिये उन पर्याप्तियों से पर्याप्त भी उदीरक हैं। इसी का संसूचन करने के लिये टीका में "यथाक्रमम्" है। इससे प्रत्येक शरीरी जीव और साधारण शरीरी जीव ये सभी उपर्युक्त प्रकृतियों के उदीरक होते हैं।