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उद्वर्तना - अपवर्तनाकरण ]
[ १४७ अब अनुभाग-उद्वर्तना और अपवर्तना इन दोनों के मिश्र अल्पबहुत्व का कथन करते हैं -
थोवं पएसगुणहाणि - अंतरे दुसु जहन्ननिक्खेवो। कमसो अणंतगुणिओ, दुसु वि अइत्थावणा तुल्ला॥८॥ वाघाएणणुभाग - कंडगमेक्काए वग्गणाऊणं।
उक्कोसो निक्खेवो ससंतबंधो य सविसेसो॥९॥ शब्दार्थ - थोवं - स्तोक अल्प, पएसगुणहाणि - (स्पर्धक) प्रदेश समूह की द्विगुण वृद्धि हानि के , अंतरे - अन्तराल में, दुसु - दोनों में, जहन्न - जघन्य, निक्खेवो - निक्षेप, कमसो- क्रमशः, अणंतगुणिओ – अनन्तगुणित, दुसु – दोनों में, वि – भी, अइत्थावणा - अतीत्थापना, तुल्ला - तुल्य समान।
वाघाएण - व्याघातदशा में, अणुभागक्कडगं - अनुभागकंडक, एक्काए - एक, वग्गणाऊणं - वर्गणा से न्यून, उक्कोसो – उत्कृष्ट, निक्खेवो - निक्षेप, ससंतबंधो – उत्कृष्ट स्थिति का अनुभाग बंध, य - और, सविसेसो – विशेषाधिक।
गाथार्थ – प्रदेश समूहों की द्विगुण वृद्धि और हानि के अन्तराल में स्पर्धक अर्थात् रससमूह अल्प है। उससे दोनों में जघन्य निक्षेप अनन्तगुणा और परस्पर तुल्य है । उससे भी दोनों में अतीत्थापना अनन्तगुणी और परस्पर तुल्य है। उससे व्याघातदशा में एक वर्गणा न्यून अनुभागकंडक अनन्तगुणा है। उससे उत्कृष्ट निक्षेप अनन्तगुणा है और उससे उत्कृष्ट स्थिति का अनुभाग विशेषाधिक है।
विशेषार्थ – एक स्थिति में जितने स्पर्धक होते हैं, उनको क्रम से स्थापित किया जाता है। जैसे कि प्रारम्भ में (आदि में) सर्व जघन्य रसस्पर्धक स्थापित किया जाता है। उसके पश्चात् उससे विशेषाधिक रसवाला द्वितीय रसस्पर्धक स्थापित किया जाता है। उसके पश्चात् उससे विशेषाधिक रस वाला तीसरा स्पर्धक स्थापित किया जाता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर विशेष विशेष अधिक रस वाले स्पर्धक स्थापित करते हुये यावत अंत में सर्वोत्कृष्ट रसवाला स्पर्धक स्थापित किया जाता है। उनमें आदि स्पर्धक से आरम्भ करके उत्तरोत्तर स्पर्धक प्रदेशों की अपेक्षा से विशेषहीन होते हैं और अंतिम स्पर्धक से आरम्भ करके पुनः नीचे नीचे वे स्पर्धक क्रम से प्रदेशों की अपेक्षा से विशेष अधिक विशेष अधिक होते हैं।
१. उनके मध्य में एक द्विगुण वृद्धि के अन्तराल में अथवा द्विगुण हानि के अन्तराल में जो स्पर्धक समुदाय है वह सबसे अल्प है। अथवा स्नेह-प्रत्यय स्पर्धक के अनुभाग की द्विगुण वृद्धि के अन्तराल में अथवा द्विगुण हानि के अन्तराल में जो अनुभागपटल है, वह सबसे अल्प है।