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५ : उदीरणाकरण
अब उद्देशय के क्रमानुसार उदीरणाकरण का कथन प्रारंभ करते हैं।
उदीरणा विचार में ये छह अर्थाधिकार हैं
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१. लक्षण, २. भेद, ३. सादि - अनादि प्ररूपणा, ४. स्वामित्व, ५. उदीरणा प्रकृतिस्थान और ६. उनका स्वामित्व । इनमें से सर्व प्रथम उदीरणा का लक्षण और भेदों का निरूपण करते हैं ।
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उदीरणा का लक्षण और भेद
जं करणेणोकडिढ्य, उंदए दिज्जइ उदीरणा एसा ।
इठि अणुभा
प्पएसमूलुत्तरविभागो ॥१॥
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शब्दार्थ जं - जिस दलिक को, करणेण - योगरूप करण (वीर्य) द्वारा, उकडिय - आकर्षित करके (खींचकर ), उदय – उदयावलिका में, दिज्जइ निक्षिप्त किया जाता है, उदीरणा - उदीरणा, एसा - यह, पगइठिइअणुभागप्पएस - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश,
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मूलुत्तर
मूल और उत्तर
विभागो भेद ।
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गाथार्थ - योग रूप करण के द्वारा जो दलिक आकर्षित कर उदय में अर्थात् उदयावलिका में निक्षिप्त किये जाते हैं, यह उदीरणा है। उसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद हैं और ये चारों भेद मूल और उत्तर प्रकृति विषयक होते हैं ।
विशेषार्थ - इस गाथा के पूर्वार्ध में उदीरणा का लक्षण और उत्तरार्ध में उदीरणा के भेद बतलाये हैं । जो परमाणु रूप कर्मदलिक करण के द्वारा अर्थात् योग संज्ञा वाले कषाय सहित अथवा . कषाय रहित वीर्य विशेष के द्वारा उदयावलिका से बहिर्वर्ती स्थितियों से आकर्षित कर उदय में दिये जाते हैं अर्थात् उदयावलिका में प्रक्षिप्त किये जाते हैं वह उदीरणा है, कहा भी है -
'उदयावलियबाहिरिल्लठि ईहिं तो कसायसहिएणं असहिएण वा जोगसन्नेण करणेणं दलियमाकड्ढिय उदयावलियाए पवेसणं उदीरणत्ति' – अर्थात् उदयावलि से बाहर की स्थितियों से कषायसहित अथवा कषायरहित योग संज्ञा वाले करण के द्वारा कर्मदलिक को आकर्षित कर उदयावलि में प्रवेश करना उदीरणा कहलाती है ।
वह किस प्रकार की होती है ? तो इसको बतलाने के लिये गाथा में 'पगइठिइ' इत्यादि पद दिया है। जिसका अर्थ यह है कि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश उदीरणा के द्वारा मूल प्रकृतियों