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[ कर्मप्रकृति
२. उससे भी उद्वर्तना और अपवर्तना इन दोनों का जघन्य निक्षेप अनन्तगुणा है, किन्तु स्वस्थान में समान होता है।
यद्यपि उद्वर्तना में आवलिका के असंख्यातवें भाग गत स्पर्धक निक्षेप के विषय हैं और अपवर्तना में एक समय अधिक आवलिका के त्रिभाग गत स्पर्धक निक्षेप के विषय होते हैं, तथापि प्रारंभिक स्थितियों में स्पर्धक अल्प ही प्राप्त होते हैं और अंतिम स्थितियों में बहुत स्पर्धक प्राप्त होते हैं। किन्तु स्पर्धकों की संख्या की अपेक्षा दोनों का निक्षेप तुल्य होता है। इसी प्रकार अतीत्थापना में
और उत्कृष्ट निक्षेप में भी जानना चाहिये। गाथा में जो कमसो पद दिया है उसे सम्पूर्ण गाथा कि अपेक्षा लगाना चाहिये।
३. उससे दोनों की अर्थात् उद्वर्तना और अपवर्तना की व्याघात बाह्य अतीत्थापना (अतीत्थापनागत स्पर्धक) अनन्तगुणी होती है। किन्तु स्वस्थान में वे दोनों परस्पर तुल्य हैं।
४. तत्पश्चात उससे 'बाघारण इत्यादि' अर्थात् व्याघात की अपेक्षा जो उत्कृष्ट अनुभाग कंडक है, वह वर्गणा से अर्थात् एक समय मात्र स्थितिगत स्पर्धक समुदाय से हीन होता है । यह उत्कृष्ट अतीत्थापना है। वह अनन्तगुणी है।
५. उससे उद्वर्तना और अपवर्तना में उत्कृष्ट निक्षेप विशेषाधिक होता है। किन्तु स्वस्थान में लगभग समान है।
६. उससे 'ससंतबंधोय सविसेसो' इत्यादि अर्थात् पूर्वबद्ध स्थितिसत्व के अनुभाग सहित उत्कृष्ट स्थिति अनुभागबंध विशेषाधिक है।
इस प्रकार अल्पबहुत्व बतलाने के बाद अब उद्वर्तन और अपवर्तना में काल नियम और विषय का नियम कहते हैं -
आबंधा उक्कड्डइ, सव्वहितो (मो) कड्ढणा ठिइरसाणं।
किट्टी वजे उभयं, किट्टीसु ओवट्टणा नवरं (एक्का)॥१०॥
शब्दार्थ - आबंधा – बंध तक, उक्कड्डइ - उद्वर्तना होती है, सव्वहितोकड्ढणा - अपवर्तना सर्वत्र, ठिइरसाणं - स्थिति और रस की, किट्टी वजे - कृष्टि वर्जित दलिक में, उभयंदोनों, किट्टीसु - कृष्टिकृत दलिक में, ओवट्टणा - अपवर्तना, नवरं – परन्तु।
गाथार्थ – बंध होने तक स्थिति और रस की उद्वर्तना होती है और अपवर्तना सर्वत्र अर्थात् बंध और अबंध दशा में। कृष्टिवर्जित दलिकों में उभय अर्थात् उद्वर्तना और अपवर्तना दोनों होती हैं।