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संक्रमकरण ]
[ ११९ समय में उच्चगोत्र का गुणसंक्रमण के द्वारा बंध के साथ उपचय करने वाले जीव के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता
है।
इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के स्वामित्व का कथन जानना चाहिये। क्षपितकर्मांश जीव की योग्यता
अब जघन्य प्रदेशसंक्रम के स्वामित्व का कथन करते हैं। वह प्रायः क्षपितकर्मांश जीव के पाया जाता है। इसलिये सर्व प्रथम उसका स्वरूप बतलाते हैं -
पल्लासंखियभागोण, कम्मठिइमथिओ निगोएसु। सुहमेस - भवियजोग्गं, जहन्नयं कट्ट निग्गम्म ॥ १४॥ जोग्गेससंखवारे, सम्मत्तं लभिय देसविरयं च। अट्ठक्खुत्तो विरई, संजोयणहा य तइवारे॥१५॥ चउरुवसमित्तु मोहं, लहुं खतो भवे खवियकम्मो।
पाएण तहिं पगयं, पडुच्च काई वि सविसेसं॥९६॥ शब्दार्थ – पल्लासंखियभागोण – पल्योपम के असंख्यातवें भागहीन, कम्मठिई – कर्मस्थिति काल तक, अथिओ - रहकर, निगोएसु - निगोद में, सुहमेस - सूक्ष्म में, अभवियजोग्गं - अभव्ययोग्य, जहन्नयं – जघन्य, कट्ट – करके, निग्गम्म – निकलकर।
___ जोग्गेस - सम्यक्त्व योग्य भवों में, असंखवारे - असंख्यातबार, सम्मत्तं – सम्यक्त्व,लभियप्राप्त कर, देसविरयं - देशविरति को, च - और, अट्ठक्खुत्तो - आठ बार, विरई - सर्वविरति, संजोयणहा – संयोजना की विसंयोजना, य - और, तइवारे - उतनी बार।
चउरुवसमित्तु – चार बार उपशमन कर, मोहं – मोहनीय का, लहुं – शीघ्र, खवेंतो - क्षय करने वाला, भवे – होता है, खवियकम्मो - क्षपितकर्मांश, पाएण – प्रायः, तहिं – उसका, पगयं - प्रकृत में, पडुच्च काई - किन्हीं प्रकृतियों की अपेक्षा, वि – भी, सविसेसं – विशेषता।
गाथार्थ – पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन कर्मस्थिति काल तक सूक्ष्म निगोद में रह कर अभव्य प्रायोग्य जघन्य प्रदेशोपचय करके वहां से निकल कर सम्यक्त्व योग्य भवों में असंख्यात बार सम्यक्त्व को और देशविरति को और आठ बार सर्वविरति को प्राप्त कर और उतनी ही बार अनन्तानुबंधी की विसंयोजना कर और चार बार मोहकर्म का उपशमन कर शीघ्र ही कर्मों का क्षय करने वाला जीव क्षपितकर्मांश कहलाता है। यहां इस जघन्य प्रदेशसंक्रम के स्वामित्व में प्रायः इसी से प्रयोजन है और किन्हीं प्रकृतियों में कुछ विशेषता भी है।