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संक्रमकरण ]
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ओरालियस्स – औदारिक के, पाउग्गा – प्रायोग्य, तित्थयरस्स - तीर्थंकर नाम का, य - और, बंधा - जघन्य, आलिगं – आवलिका, गंतु – बीतने के बाद ।
बंध के बाद, जहन्नओ
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गाथार्थ – औदारिकशरीरप्रायोग्य प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम तीन पल्योपम की आयु वाले मनुष्य तिर्यंचों को आयु के अंत में होता है तथा तीर्थंकर नामकर्म का जघन्य प्रदेशसंक्रम बंध होने के बाद एक आवलिकाल व्यतीत होने के अनंतर होता है ।
विशेषार्थ – यहां औदारिक- प्रायोग्य इस पद से औदारिकसप्तक ग्रहण करना चाहिये । मनुष्य तिर्यंचों के तीन पल्योपम के अंत में औदारिकशरीर के योग्य जो प्रकृतियां हैं, वे जघन्य प्रदेशसंक्रम के योग्य होती हैं। जिसका यह आशय है कि जो जीव अन्य सभी जीवों की अपेक्षा औदारिकसप्तक की सर्व जघन्य सत्ता वाला होकर तीन पल्योपम की आयु वाले तिर्यंचों या मनुष्यों में उत्पन्न हुआ ऐसा वह जीव औदारिकसप्तक का अनुभव करते हुए और विध्यातसंक्रम के द्वारा परप्रकृति में संक्रम करते हुए अपनी आयु के चरम समय में उस औदारिकसप्तक का जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है ।
‘तित्थयरस्स' इत्यादि अर्थात् तीर्थंकर नाम का बंध करता हुआ जीव प्रथम समय में बांधे हुए दलिक को बंधावलिकाल बीत जाने पर जब पर प्रकृतियों में यथाप्रवृत्तसंक्रम के द्वारा संक्रमाता है तब तीर्थंकर नामकर्म का जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है ।
इस प्रकार प्रदेशसंक्रम का वर्णन जानना चाहिये और इसके साथ ही संक्रमकरण का विवेचन समाप्त होता है। अब आगे क्रमप्राप्त उद्वर्तना और अपवर्तना करण का कथन प्रारम्भ करते हैं ।
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