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[ कर्मप्रकृति
भागे - तीसरे भाग में, समयहिए - समयाधिक, सेसमइवईय - शेष का अतिक्रमण कर।
वड्ढइ - बढ़ती है, तत्तो - वहां से, अतित्थावणा - अतीत्थापना, जावलिगा – जब तक आवलिका, हवई - होती है, पुन्ना - पूर्ण, ता – तत्पश्चात्, निक्खेवो – निक्षेप, समयाहिगालिग- समयाधिक आवलिका, दुगूण – द्विकहीन, कम्मठिइ – कर्मस्थिति।
गाथार्थ – (कर्म) स्थिति की अपवर्तना करता हुआ जीव उदयावलिका से बाहर के स्थिति विशेषों को अतिक्रमण करके समयाधिक आवलिका के तृतीय भाग में निक्षेप करता है और वहां से लेकर आवलिका पूर्ण होने तक अतीत्थापना बढ़ती है (वहां से आगे समयाधिक आवलिका द्विकहीन सर्वकर्मस्थिति प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप होता है।)
विशेषार्थ – स्थिति का अपवर्तन करता हुआ जीव उदयावलिका से बाह्य स्थिति भेदों का अपवर्तन करता है।
प्रश्न - वे स्थितिविशेष कितने होते हैं ?
उत्तर – उदयावलिका से ऊपर एक समय मात्र स्थिति, दो समय मात्र स्थिति इस प्रकार तब तक कहना चाहिये जब तक कि बंधावलिका और उदयावलिका से हीन' सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्राप्त होती है। वे स्थितिविशेष इतने होते हैं। जो अपवर्तना के योग्य होते हैं।
उदयावलिकागत स्थिति सकल करणों के अयोग्य होती है, इसलिये इसे अपवर्तित नहीं करता है। इसी कारण यह कहा कि उदयावलिका से बाह्य स्थितिविशेषों को अपवर्तित करता है।
प्रश्न - अपवर्तित करके कहां निक्षिप्त करता है ?
उत्तर - आवलिका के समयाधिक तृतीय विभाग में, शेष समयोन (एक समय कम) उपरितन दो विभागों को अतिक्रमण करके। इसका आशय यह है कि - उदयावलिका से उपरितन जो स्थिति है, उसके दलिक का अपवर्तन करता हुआ उदयावलिका के उपरितन समयोन दो विभागों को अतिक्रमण कर अधोवर्ती एक समय अधिक तीसरे भाग में निक्षिप्त करता है। यह जघन्य निक्षेप है और यही जघन्य अतीत्थापना है।
१. यहां जो उदयावलिका अपवर्तनीय बताई है वह अपवर्तना के प्रवर्तित होने के काल की अपेक्षा से समझना चाहिये । अन्यथा अपवर्तना के प्रारम्भ होने के पहले बंधावलिका भी अनपवर्तनीय है। अर्थात् बध्यमान प्रकृतियों की बंधावलिका व्यतीत होने के बाद अपवर्तना प्रारम्भ होती है और वह भी उदयावलिकागत स्थितियों को छोड़कर शेष स्थितियों में ही प्रारम्भ होती है। २. अपवर्तना में अबाधा की अतीत्थापना नहीं होती है। इसलिये यहां अबाधा संबंधी अतीत्थापना नहीं बताई है।