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[ कर्मप्रकृति
उदयावलि मुपरित्थं ठाणं अहिगिच्च होई अइहीणो।
निक्खेवो सव्वोवरि ठिइठाणवसा भवे परमो॥ अर्थात् उदयावलिका से ऊपर के स्थितिस्थान की अपेक्षा अतिहीन (जघन्य) निक्षेप और सबसे ऊपरी स्थान की अपेक्षा से परम (उत्कृष्ट) निक्षेप प्राप्त होता है।
___ इस प्रकार निर्व्याघात दशा में स्थिति अपवर्तना की विधि कही गई है। अब व्याघात दशा में अपवर्तना की विधि बतलाते हैं -
बाघाए समऊणं, कंडगमुक्कस्सिया अइत्थवणा।
डायठिई किंचूणा ठिइकंडुक्कस्सगपमाणं॥६॥ शब्दार्थ – बाघाए - व्याघात दशा में, समऊणं - एक समय कम, कंडग – कंडक, उक्कस्सिया – उत्कृष्ट, अइत्थवणा - अतीत्थापना, डायठिई - डायस्थिति, किंचूणा - कुछ कम, ठिइकंडुक्कस्सग – कंडक स्थिति का उत्कृष्ट, पमाणं - प्रमाण।
गाथार्थ – व्याघात दशा में एक समय कम कंडक प्रमाण उत्कृष्ट अतीत्थापना होती है और कुछ कम डायस्थिति के तुल्य है।
विशेषार्थ – व्याघात अर्थात् स्थितिघात, उसके होने पर अर्थात् उसे करते हुए एक समय कम कंडक प्रमाण उत्कृष्ट अतीत्थापना होती है।
प्रश्न – एक समय कम कैसे कहा ?
उत्तर – उपरितन समय मात्र - अपवर्त्यमान स्थितिस्थान के साथ अधस्तन स्थान से अर्थात् नीचे के स्थान से कंडक प्रमाण समय अतिक्रमण किया जाता है । इसलिये बिना कंडक एक समय कम ही होता है।
अब कंडक प्रमाण कहते है कि - डायस्थिति इत्यादि। अर्थात् जिस स्थिति से आरम्भ करके उसी प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति बंध करता है वहां से लेकर सभी स्थिति डायस्थिति कहलाती है, पंच संग्रह की मूल टीका में भी कहा है कि - यस्सा स्थितेरारभ्योत्कृष्टं स्थितिबंधं विधत्ते निर्मापयति, तस्या आरभ्योपरितनानि सर्वाण्यपि स्थितेस्थानानि डायस्थिति संज्ञानि भवन्ति।
जिस स्थिति से आरम्भ करके उत्कृष्ट स्थितिबंध का निर्माण करता है, उससे लेकर ऊपरी १. पंच-संग्रह उदवर्तनापवर्तनाकरण गाथा १२ । २. इसका प्रारूप परिशिष्ट में देखिये।