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संक्रमकरण ]
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प्रमाण काल द्वारा उद्वलनासंक्रम के द्वारा उद्वलना करते हुए जो द्विचरम खंड का दलिक चरम में अन्य प्रकृति रूप से संक्रांत होता है, वह उस जीव के वैक्रिय - एकादशक का जघन्य प्रदेशसंक्रम है।
___“एयस्स इत्यादि' अर्थात् इसी अनन्तरोक्त जीव के पूर्वोक्त विधि से तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में गये हुए और सूक्ष्म एकेन्द्रिय भव में वर्तमान रहते हुये जो उच्चगोत्र और मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी रूप मनुष्यद्विक पूर्व के बंधे हुये हैं, उन्हें चिरकालीन उद्वलना के द्वारा उद्वलन करते हुए द्विचरम खंड के चरम समय में परप्रकृति में जो दलिक संक्रांत होता है, वह उच्च गोत्र और मनुष्यद्विक का जघन्य प्रदेशसंक्रम है।
उक्त कथन का यह आशय है कि मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का पहले तेज और वायुकायिक के भव में रहते हुये उद्वलन किया, फिर सूक्ष्म एकेन्द्रिय भव को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक उन्हें बांधा, तत्पश्चात् पंचेन्द्रिय तिर्यंच भव में जाकर सप्तम नरक पृथ्वी में उत्कृष्ट स्थिति का नारकी हुआ, पुनः वहां से निकलकर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ। इतने काल तक मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र की उद्वलनासंक्रम के द्वारा चिरकाल तक उद्वलना करते हुये द्विचरम खंड का जो दलिक चरम समय में परप्रकृति रूप से संक्रांत किया जाता है वह मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का जघन्य प्रदेशसंक्रम है। तथा –
हस्सं कालं बंधिय, विरओ आहारसत्तगं गंतुं।
अविरइ महुव्वलंतस्स जा थोव उव्वलणा॥१०६॥ शब्दार्थ – हस्सं कालं – अल्पकाल तक, बंधिय – बांधकर, विरओ – सर्वविरति (अप्रमत्त संयत)जीव, आहारसत्तगं - आहारकसप्तक को, गंतुं - प्राप्तकर, अविरइ – अविरतिपने को, महुव्वलंतस्सदीर्घकाल तक उद्वलना करते हुए, जा – जो, थोव – स्तोक (अल्प) उव्वलणा – उद्वलना।
गाथार्थ – सर्वविरति (अप्रमत्त संयत) जीव के, आहारकसप्तक को अल्पकाल तक बांधकर और अविरतिपने को प्राप्तकर दीर्घकाल तक उद्वलना करते हुये जो अल्प उद्वलना वही जघन्य प्रदेशसंक्रम है।
विशेषार्थ – ह्रस्वकाल अर्थात् अल्पकाल तक विरत - अप्रमत्त संयत होकर जो जीव आहारकसप्तक को बांधकर कर्मोदय की परिणति के वश पुनः अविरति को प्राप्त हुआ और पुनः अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् महान अर्थात् चिरकाल तक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल से उद्वलना के द्वारा उद्वलना करते हुये जो स्तोक उद्वलना होती है, वही आहारकसप्तक का जघन्य प्रदेशसंक्रम कहलाता है तथा द्विचरम खंड के समय में जो कर्मदलिक पर प्रकृतियों में प्रक्षिप्त किया जाता है, वह स्तोक उद्वलना कहलाती है – द्विचरमखंडस्य चरमसमये यत्कर्मदलिकं परप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते सा स्तोकोद्वलना तथा –
तेवट्ठिसयं उदहीणं स चउपल्लाहियं अबंधित्ता। अंते अहप्पवत्त करणस्स उज्जोव तिरियदुगे॥१०७॥