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[कर्मप्रकृति
जुगुप्सा, रूप हास्यचतुष्क इन ग्यारह प्रकृतियों का अपने अपने बंध के अंत समय में यथापवृत्तसंक्रम के द्वारा जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। निद्राद्विक और हास्यचतुष्क के बंधविच्छेद के अनन्तर उनके द्रव्य का गुणसंक्रम के द्वारा संक्रम होता है। इसलिये उस समय बहुत अधिक कर्मदलिक पाये जाते हैं। अंतरायपंचक का तो बंधविच्छेद के अनन्तर संक्रम ही नहीं होता है क्यों कि पतद्ग्रह का अभाव है। इसलिये बंध के अंतसमय पद का ग्रहण किया है। तथा –
सायस्स णुवसमित्ता, असायबंधाण चरिम बंधंते।
खवणाए लोभस्स वि, अपुव्वकरणालिगा अंते॥ ९८॥ शब्दार्थ – सायस्स - सातावेदनीय का, अणुवसमित्ता – मोहनीय का उपशमन नहीं करके, असायबंधाण – असाता के बंध, चरिम बंधते – चरम बंध के, खवणाए - क्षपक जीव के, लोभस्सलोभ का, वि - और, अपुवकरणालिगा अंते - अपूर्वकरण की आवलि के अंतिम समय में।
गाथार्थ - मोहनीय का उपशमन नहीं करके असातावेदनीय के बंध के चरम बंधसमय सातावेदनीय का जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है तथा मोह का अनुपशमक क्षपक जीव अपूर्वकरण की आवलि के अंतिम समय में लोभ का जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है।
विशेषार्थ – अनुपशम करके अर्थात् मोहनीय कर्म का उपशम न करके यानी उपशमश्रेणी पर आरोहण न करके असाता प्रकृतियों के बंध में जो चरम बंध है अर्थात् असाता बंध के अंतिम समय में वर्तमान और कर्मक्षपण करने के लिये उद्यत जीव के साता वेदनीय का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। इससे परे सातावेदनीय के पतद्ग्रहता होती है, संक्रम नहीं होता है।
'खवणाए' इत्यादि अर्थात् मोहनीय कर्म का उपशम न करके कर्मक्षपण के लिये उद्यत जीव के अपूर्वकरण काल की प्रथम आवलि के अंतिम समय में संज्वलन लोभ का प्रदेशसंक्रम होता है। इसके आगे गुणसंक्रम से प्राप्त अत्यधिक दलिक की संक्रमावलि व्यतीत हो जाने से संक्रम संभव है। अतः जघन्य प्रदेशसंक्रम का अभाव है। तथा – -
अयरछावट्ठिदुर्ग, गालियथीवेय थीणगिद्धितिगे।
सगखवणहापवत्तस्संते एमेव मिच्छत्ते॥ ९९॥ शब्दार्थ – अयरछावट्ठिदुर्ग – दो छियासठ सागरेपम तक, गालिय – गलाकर, निर्जरा कर, थीवेय – स्त्रीवेद, थीणगिद्धितिगे - स्त्यानर्धित्रिक, सगखवण - स्व-स्व प्रकृति का क्षपण करते हुए, अहापवत्तस्संते – यथाप्रवृत्तकरण के अंत में, एमेव – इसी प्रकार, मिच्छत्ते – मिथ्यात्व के विषय में।