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[ कर्मप्रकृति को प्राप्त करता है।
तत्पश्चात् उस देवभव से च्युत हो कर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और उसके बाद सात मास अधिक आठ वर्ष बीतने पर शीघ्र ही कर्मक्षपण के लिये उद्यत हुआ। केवल पुरुषवेद के बंधविच्छेद के पहले दो आवलि काल से पुरुषवेद के जो दलिक बांधे हैं, वे अतीव अल्प हैं। इसलिये उन्हें छोड़ कर शेष दलिकों का अंतिम समय में सर्वसंक्रमण करते हुए उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये तथा उसी पुरुषवेद के संक्रम के स्वामी के संज्वलन क्रोध का संसार में परिभ्रमण करते हुए संचित कर्म दलिकों का और क्षपणकाल में अन्य प्रकृतियों के दलिकों का गुण संक्रमण से प्रचुर परिमाण करने पर अपने समय में सर्वसंक्रमण करने पर संज्वलन क्रोध का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है। यहां पर भी बंधविच्छेद से पहले दो आवलिकाल से बंधा हुआ जो कर्मदलिक है, उसको छोड़ कर शेष के अंतिम समय सर्वसंक्रमण करने पर उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये। इसी प्रकार संज्वलन मान और माया का भी उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम समझना चाहिये। तथा –
चउरुवसमित्तु खिप्पं, लोभजसाणं ससंकमस्संते।
सुभधुवबंधिगनामा - णावलिगं गंतु बंधंता॥८८॥ शब्दार्थ – चउरुवसमित्तु - चार बार(मोहनीय का) उपशमन कर, खिप्पं - शीघ्र, लोभजसाणं- लोभ और यश:कीर्ति का, ससंकमस्संते – स्वसंक्रम के अन्त्य प्रक्षेप में, सुभधुवबंधिगनामाण- नाम कर्म की शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का, आवलिगं गंतु – आवलिका के बीतने के पश्चात् , बंधता- बंधविच्छेद के बाद।
गाथार्थ – चार बार मोहनीय कर्म का उपशमन करके शीघ्र ही क्षपकश्रेणी को माडने वाला गुणितकर्मांश जीव के संज्वलन लोभ और यश:कीर्ति का स्वसंक्रम के अन्त्य प्रक्षेप के समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है, तथा नामकर्म की ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों को बांध कर बंधविच्छेद के पश्चात आवलि काल जाने के बाद उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
विशेषार्थ – अनेक भवों में परिभ्रमण करते हुए चार बार मोहनीयकर्म का उपशमन कर चौथी उपशमना के अनन्तर शीघ्र ही क्षपकश्रेणी को प्राप्त हुए उसी गुणितकांश जीव के अपने संक्रम के अंत में अर्थात् सर्वसंक्रम के समय संज्वलन लोभ और यश कीर्ति का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। यहां उपशमश्रेणी को प्राप्त होते हुए अन्य प्रकृतियों के बहुत से दलिकों का गुणसंक्रम के द्वारा उनमें प्रक्षेपण करने से संज्वलन लोभ और यश:कीर्ति इन दोनों ही प्रकृतियों को निरंतर पूरित करता है, यह बतलाने के लिये यहां पर उपशमश्रेणी का ग्रहण किया है। जब तक संसार है तब तक परिभ्रमण करता हुआ जीव चार बार ही मोहनीय कर्म का उपशम करता है, पांचवी बार नहीं, यह बताने के लिये चार बार उपशम करके, यह पद कहा है तथा संज्वलन लोभ का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम अन्तरकरण के चरम समय में जानना चाहिये, उसके आगे नहीं। क्योंकि