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[ कर्मप्रकृति
भव में वर्तमान सम्यग्दृष्टि जीव वज्रऋषभनाराचसंहनन को बांधते हैं । किन्तु जो मनुष्य और तिर्यंच भव में वर्तमान सम्यग्दृष्टि जीव हैं, उनके देवगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध होने से संहनन नामकर्म का बंध असंभव है । इसलिये ये संहनन सम्यग्दृष्टि की शुभ प्रकृतियों में होते हुए भी ध्रुवबंधिनी प्रकृति नहीं, अत: इसे पृथक् कहा है तथा एक सौ बत्तीस सागरोपमो तक संचित जो शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियां हैं, उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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जो जीव लगातार छियासठ सागरोपमों तक सम्यक्त्व का पालन करता हुआ इन प्रकृतियों को बांधता है, वह उसके पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त काल तक सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभव कर अर्थात् तीसरे गुणस्थान में आकर फिर सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तब पुनः छियासठ सागरोपमों तक सम्यक्त्व का अनुभव करता हुआ इन प्रकृतियों को बांधता है। इस प्रकार एक सौ बत्तीस सागरोपमों तक सम्यग्दृष्टि जीव उक्त ध्रुव प्रकृतियों को प्राप्त करके और वज्रऋषभनाराचसंहनन को मनुष्य भव से हीन यथासंभव उत्कृष्ट काल तक पूर करके तत्पश्चात् सम्यग्दृष्टि की इन ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों को अपूर्वकरण गुणस्थान में बंधविच्छेद के अनन्तर एक आवलि प्रमाण काल को बिता कर उनको यश: कीर्ति में संक्रमण करने वाले जीव के उन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। क्योंकि उस समय अन्य प्रकृतियों के अत्यधिक दलिक गुणसंक्रम के द्वारा उक्त प्रकृतियों में संक्रान्त होते हैं और संक्रमावलि के बीतने पश्चात उनका संक्रम संभव है। वज्रऋषभनाराचसंहनन का तो देवभव से च्युत हुआ सम्यग्दृष्टि देवगतिप्रायोग्य कर्म को बांधता हुआ आवलि प्रमाण काल का उल्लंघन कर उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। तथा -
पूरितु पुव्वकोडी- पुहुत्त संछोभगस्स निरयदुगं । देवगईनवगस्स य, सगबंधंतालिगं गंतुं ॥ ९० ॥
शब्दार्थ – पूरित्तु - पूर करके, पुव्वकोडी – पूर्व कोटि, पुहुत्त – पृथक्त्व, संछोभगस्स - अन्य प्रकृति में संक्रम करते हुए, निरयदुगं - नरकद्विक का, देवगईनवगस्स – देवगतिनवक का, य और, सगबंधतालिगं - अपने बंधविच्छेद के बाद आवलिका, गंतुं - व्यतीत होने पर।
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गाथार्थ - नरकद्विक को पूर्वकोटिपृथक्त्व तक पूर कर उसका अन्य प्रकृति में संक्रम करते हुए उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है तथा देवगतिनवक का पूर्वकोटिपृथक्त्व तक बंध करके अपने बंधविच्छेद के पश्चात एक आवलिकाल व्यतीत होने पर यशःकीत्रि में संक्रमाते हुए उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये ।
विशेषार्थ – नरकगति और नरकानुपूर्वी रूप नरकद्विक प्रकृतियों को पूर्वकोटिपृथक्त्व तक पूर करके अर्थात् पूर्व कोटि की आयु वाले सात तिर्यंच भवों में बार बार बांध कर उसके पश्चात आठवें भव में मनुष्य हो कर क्षपकश्रेणी को प्राप्त हुआ जीव उस नरकद्विकका अन्य प्रकृति में संक्रमण करता हुआ अर्थात् अंतिम समय में सर्वसंक्रमण के द्वारा प्रकृतिरूप करने वाला जीव उस नरकद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम