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संक्रमकरण ]
[ १११ कर मिथ्यात्व में गए हुए जीव के वेदक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
विशेषार्थ – संछोभणाए - अर्थात् क्षपक जीव के दोनों मोहनीय प्रकृतियों अर्थात् मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूप दोनों दर्शनमोहनीय प्रकृतियों का अपने-अपने चरम संक्षोभ में अर्थात् अंतिम सर्व प्रदेशसंक्रम के समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है।
तमतमा नामक सप्तम नरकपृथ्वी में वर्तमान जीव क्षण शेष अर्थात् अन्तर्मुहूर्त आयु के शेष रह जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व को उत्पन्न कर दीर्घ गुणसंक्रम काल के द्वारा वेदक सम्यक्त्व के पुंज को पूरकर सम्यक्त्व से गिरता हुआ मिथ्यात्व को प्राप्त होकर उसके प्रथम समय में ही वेदक सम्यक्त्व का मिथ्यात्व में उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है। तथा –
भिन्नमुहुत्ते सेसे, तच्चरमावस्सगाणि किच्चेत्थ।
संजोयणा विसंजोय-गस्स संछोभणा एसिं॥८३॥ शब्दार्थ – भिन्नमुहुत्ते - अन्तर्मुहूर्त, सेस – शेष रह जाने पर, तच्चरमावस्सगाणि - वह चरम आवश्यक, किच्च – करके, इत्थ – यहां पर, संजोयणा - अनन्तानुबंधी, विसंजोयगस्स - विसंयोजना करते हुए, संछोभणा – चरम प्रक्षेप, एसिं - इसकी (अनन्तानुबंधी की)।
गाथार्थ – अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु के शेष रह जाने पर वह सप्तम नरक गत गुणितकर्मांश जीव चरम आवश्यक (अंत्य आवश्यक) करके वहां से निकलकर यहां पर अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करते हुए उसके चरम प्रक्षेप के समय उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम करता है।
विशेषार्थ – वह गुणितकांश सप्तम पृथ्वी में वर्तमान नारक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रह जाने पर उस भव में जो चरम आवश्यक है, गाथा ७७ में चरम आवश्यक का इस प्रकार स्पष्टीकरण है -
जोगजवमझ उवरि मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे।
तिचरिम दुचरिम समए पूरित्तु कसाय उक्कस्सं॥ अर्थात् यवमध्य के ऊपर जीवन के अन्त में अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रहकर त्रिचरम या द्विचरम समय में उत्कृष्ट कषाय को प्राप्तकर इत्यादि, उसको करके उस सप्तम पृथ्वी से निकलकर और सम्यक्त्व को उत्पन्न कर वेदक सम्यग्दृष्टि होता हुआ संयोजना अर्थात् अनन्तानुबंधी कषायों का विसंयोजन करता है। विसंयोजना क्षपणा को कहते हैं इसलिये इन अनन्तानुबंधी कषायों के अंतिम दलिक प्रक्षेपण के समय सर्व संक्रमण से उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। तथा –
ईसाणागयपुरिसस्स, इत्थियाए य अट्ठवासाए। मासपुहुत्ताप्भहिए, नपुंसगे सव्वसंकमणे ॥८४॥