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[ कर्मप्रकृति
बादर पृथ्वीकायिकों के मध्य में पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम से न्यून सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम तक परिभ्रमण करके वहां से निकलता है और निकलकर बादर त्रसकायिक द्वीन्द्रियादिक में उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् -
इस प्रकार पूर्वोक्त विधि से 'पज्जत्तापजत्तगदीहेयरद्धासु' इत्यादि अर्थात् पूर्व गाथोक्त रूप से बादर त्रसों में उनके काल प्रमाण अर्थात् बादर त्रसकाय की स्थिति का काल जो पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण है, उतने काल तक विभिन्न त्रस पर्यायों में परिभ्रमण करके जितनी बार सातवीं नरक पृथ्वी में जाने के लिये योग्य होता है, उतनी बार जा कर अंतिम सप्तम पृथ्वी के नारक भव में वर्तमान रहा। यहां पर दीर्घजीवित्व और योग तथा कषाय की उत्कृष्टता पाई जाती है। इसीलिये यावत् सप्तम नरक पृथ्वी के गमन का ग्रहण किया गया है तथा सप्तम पृथ्वी के नारक भव में सर्व लघु काल से पर्याप्त हुआ, अर्थात् अन्य सभी नारकों से शीघ्र पर्याप्त भाव को प्राप्त हुआ। यहां पर अपर्याप्त की अपेक्षा पर्याप्त का योग असंख्यात गुणा होता है और ऐसा होने पर उसके अत्यधिक बहुत से कर्मपुद्गलों का ग्रहण संभव है। इस कारण इस प्रयोजन से यहां सर्वलघुपर्याप्त यह पद कहा है तथा बहुशः अर्थात् अनेक बार उस भव में रहते हुये योग कषायाधिकता अर्थात् उत्कृष्ट योगस्थानों और उत्कृष्ट काषायिक परिणाम विशेषों को प्राप्त हुआ, तथा –
___योग यवमध्य के ऊपर अर्थात् आठ समय वाले योगस्थानों के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रह कर जीवन के अन्त में अन्तर्मुहूर्त आयु के शेष रह जाने पर - यानि आयु के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रह जाने पर योग यवमध्य के ऊपर असंख्यात गुणी वृद्धि से अतमुहूर्त काल तक प्रवर्धमान योग वाला रह कर - इससे क्या प्रयोजन है ? इसको बताने के लिये गाथा में 'तिचरमे' इत्यादि पद दिया है जिसका यह अर्थ है कि भव के समाप्त होने में जब तीन समय शेष रह जायें या दो समय शेष रह जायें तो इस प्रकार के त्रिचरम अथवा द्विचरम समय में रहते हुये उत्कृष्ट काषायिक संक्लेशस्थान को प्राप्त कर चरम या द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग स्थान को भी पाकर के यहां पर उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेश युगपत एक समय तक ही प्राप्त होता है, अधिक नहीं। यह समय की विषमता बतलाने की अपेक्षा उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट कषाय स्थान का ग्रहण किया है। त्रिचरम या द्विचरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश का ग्रहण बहुत अधिक उद्वर्तना होने और 'अत्यल्प'
अपवर्तना के अभाव को बतलाने के लिये किया गया तथा द्विचरम और चरम समय में उत्कृष्ट योग का ग्रहण परिपूर्ण कर्मप्रदेशों का संचय होने तक के लिये किया गया है। इस प्रकार नारक भव के चरम समय में वर्तमान जीव सम्पूर्ण गुणितकर्मांश होता है। उस सम्पूर्ण गुणितकर्मांश जीव का यहां उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम के स्वामित्व में प्रयोजन है।
इस प्रकार गुणितकर्मांश का स्वरूप जानना चाहिये। अब उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्वामित्व का कथन प्रारम्भ करते हैं -