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संक्रमकरण ]
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अनुभाग संक्लेश में वर्तमान जीव (संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव) के पाया जाता है । शेषकाल में अनुत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है। इसी प्रकार संक्रम भी जानना चाहिये। इसलिये ये दोनों ही सादि और अध्रुव हैं । इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग संक्रम पुनः बहुत से अनुभागसत्त्व के घात करने वाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव के पाया जाता है। बहुत 'अनुभाग सत्त्व के घात के अभाव में तो उस जीव के भी अजघन्य संक्रम पाया जाता है। इसलिये ये दोनों भी सादि और अध्रुव हैं।
इस प्रकार अनुभागसंक्रम की सादि अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये ।
स्वामित्व प्ररूपणा
अब स्वामित्व प्ररूपणा करने का क्रम प्राप्त है। स्वामित्व के दो प्रकार हैं १. उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम स्वामित्व और २. जघन्य अनुभागसंक्रम स्वामित्व । इनमें से उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामित्व को कहने के लिये उसके काल प्रमाण का नियम बतलाते हैं
उक्कोसगं पबंधिय, आवलियमइच्छिऊण उक्कोसं । जाव न घाएइ, तगं, संकमइ य आमुहुत्तो ॥ ५२ ॥ शब्दार्थ – उक्कोसगं उत्कृष्ट अनुभाग को, पबंधिय – बांधकर, आवलियं – आवलिका, अइच्छिऊण अतिक्रमण करके, उक्कोसं उत्कृष्ट भाग को, जाव तक, न घाएइ घात न करे, तगं - तब तक, संकमइ - संक्रमित करता है, य और, आमुहुत्तंतो - अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त । गाथार्थ उत्कृष्ट अनुभाग को बांधकर एक आवलिका अतिक्रमण करके तब तक उस उत्कृष्ट अनुभाग को अन्तर्मुहूर्तकाल तक संक्रमित करता है जब तक उसका घात नहीं करता है।
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विशेषार्थ – मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभाग को बांधकर उससे एक आवलिका का अतिक्रमण कर अर्थात बंधावलिका से परे उस उत्कृष्ट अनुभाग को तब तक संक्रांत करता है जब तक कि उसका क्षय नहीं करता है ।
प्रश्न
• कितने काल तक पुनः उसका विनाश नहीं करता है ?
उत्तर - अन्तर्मुहूर्तकाल तक उसका विनाश नहीं करता है। अर्थात अन्तर्मुहूर्तकाल से परे मिथ्यादृष्टि जीव शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को संक्लेश के द्वारा और अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को विशुद्धि के द्वारा अवश्य विनाश कर देता है ।
इस प्रकार काल का प्रमाण उत्कृष्ट अनुभाग संक्रम के स्वामी का है । अब उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम के स्वामियों का निरूपण करते हैं