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[ कर्मप्रकृति
कषायाष्टक, नव नोकषाय और संज्वलन क्रोध, मान माया इन छत्तीस प्रकृतियों को अपने-अपने क्षपण काल में अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा उद्वलित करता है तथा निजक अर्थात अपने-अपने क्षपण काल में अविरत सम्यग्दृष्टि आदि अनन्तानुबंधी कषायों की और दृष्टियुगल अर्थात मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वलना अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा करते हैं।
इस प्रकार उद्वलना संक्रम का आशय समझना चाहिये। विध्यातसंक्रम अब विध्यातसंक्रम का लक्षण कहते हैं -
जासि न बंधो गुण - भवपच्चयओ तासि होइ विद्याओ।
अंगुल असंखभागो, ववहारो तेण सेसस्स॥६८॥ शब्दार्थ – जासि – जिन प्रकृतियों का, न – नहीं, बंधो – बंध होता है, गुणभवपच्चयओगुणप्रत्यय, भवप्रत्यय से, तासि – उनका, होई - होता है, विज्झाओ- विध्यातसंक्रम, अंगुल असंखभागो - अंगुल के असंख्यातवें भाग, ववहारो - अपहत, तेण – उसके द्वारा, सेसस्स – शेष दलिक का।
गाथार्थ – जिन प्रकृतियों का गुणप्रत्यय अथवा भवप्रत्यय से बंध नहीं होता है, उन प्रकृतियों का विध्यातसंक्रम होता है। इस संक्रम के द्वारा प्रथम समय में जितना कर्मदलिक परप्रकृति में प्रक्षिप्त किया जाता है, उस प्रमाण से शेष कर्मदलिक अंगुल के असंख्यातवें भाग से अपहृत होता है।
विशेषार्थ – जिन प्रकृतियों का गुणप्रत्यय (सम्यग्दर्शनादि गुणों के निमित्त) से अथवा भवप्रत्ययदेवनारकादि भव के निमित्त से बंध नहीं होता है, उन प्रकृतियों का विध्यातसंक्रम होता है - यासां प्रकृतीनां गुणप्रत्ययतो भवप्रत्ययतो वा बंधो न भवति तासां विध्यातसंक्रमोऽवसेयः।
प्रश्न – वे प्रकृतियां कौनसी हैं, जिनका भवप्रत्यय अथवा गुणप्रत्यय से बंध नहीं होता है ?
उत्तर - वे प्रकृतियां इस प्रकार हैं, यथा – मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्त तक जिन सोलह प्रकृतियों का बंध होता है उनका सास्वादन आदि गुणस्थानों में गुणप्रत्यय से बंध नहीं होता है। जिन पच्चीस प्रकृतियों का सास्वादन गुणस्थान के अन्त तक बंध होता है, उनका सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान आदि आगे के गुणस्थानों में गुणप्रत्यय से बंध नहीं होता है। जिन दस प्रकृतियों का अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के अंत तक बंध होता है, उनका देशविरत आदि गुणस्थानों में, जिन चार प्रकृतियों का देशविरत गुणस्थान के अंत १. गुणप्रत्यय या भवप्रत्यय से नहीं बंधने वाली प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग का विशुद्धि वशात ह्वास होना विध्यातसंक्रम