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संक्रमकरण ]
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तक बंघ होता है, उनका प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में गुणप्रत्यय से बंध नहीं होता है । इसलिये उन प्रकृतियों
- का उन उन गुणस्थानों में विध्यातसंक्रम होता है । तथा
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वैक्रियसप्तक, देवद्विक, नरकद्विक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण और आतप इन बीस प्रकृतियों के मिथ्यात्वादि बंधकारणों के विद्यमान होने पर भी नारक जीव भवप्रत्यय से बंध नहीं करते हैं। नरकद्विक, देवद्विक, वैक्रियसप्तक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन सत्रह प्रकृतियों का सभी देव भवप्रत्यय से बंध नहीं करते है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर नामकर्म का भी सनत्कुमार आदि देव बंध नहीं करते हैं। छह संहनन, समचतुरस्रसंस्थान को छोड़कर संस्थानपंचक, नपुंसकवेद, मनुष्यद्विक, औदारिकसप्तक और एकांत तिर्यंच योग्य स्थावर आदि प्रकृतिदशक, दुर्भगत्रिक, नीच गोत्र, अप्रशस्त विहायोगति इन छत्तीस प्रकृतियों का असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच भवप्रत्यय से बंध नहीं करते हैं ।
इसी प्रकार जिस जिस जीव के जो जो प्रकृति भवप्रत्यय से अथवा गुणप्रत्यय से नहीं बंधती है, वह वह प्रकृति उस उस जीव के विध्यातसंक्रम के योग्य जानना चाहिये।
विध्यातसंक्रम में कितने कर्मदलिक का संक्रम होता है ? इसका प्रमाण निरूपण करने के लिये गाथा में अंगुल असंखभागो इत्यादि पद दिया गया है। जिसका यह अर्थ है कि जितने प्रमाण वाला कर्मदलिक प्रथम समय में विध्यातसंक्रम के द्वारा परप्रकृति में प्रक्षिप्त किया जाता है, उसी प्रमाण से सत्ता में स्थित शेष कर्मदलिक' का अपहरण किये जाने पर अंगुल के असंख्यातवें भाग से अपहृत होता है। जिसका यह आशय है कि जितने प्रमाण वाला कर्मदलिक विध्यातसंक्रम के द्वारा प्रथम समय में अन्य प्रकृति में प्रक्षेपण किया जाता है, उतने प्रमाण वाले खंडों के द्वारा तत्प्रकृतिगत शेष सभी दलिक अपहरण किया जाये तो अंगुल प्रमाण क्षेत्र के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतनी प्रदेश संख्या के द्वारा वह कर्मदलिक अपहृत किया जाता है। यह तो हुआ क्षेत्र की अपेक्षा निरूपण और काल की अपेक्षा तो असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल द्वारा अपहृत होता है ।
यह विध्यातसंक्रम प्रायः यथाप्रवृत्तसंक्रम के अंत में जानना चाहिये । अर्थात यथाप्रवृत्तसंक्रम की समाप्ति होने पर विध्यातसंक्रम प्रारम्भ होता है ।
इस प्रकार विध्यातसंक्रम का स्वरूप जानना चाहिये । गुणसंक्रम और यथाप्रवृत्तसंक्रम
अब गुणसंक्रम और यथाप्रवृत्तसंक्रम का लक्षण करते हैं १. शेषदलिक अर्थात विवक्षित प्रकृति संबंधी बाकी रहा हुआ दलिक ।
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