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[ कर्मप्रकृति गाथार्थ – चरम (अंतिम) स्थितिखंड असंख्यात गुण होता है, उसे प्रतिसमय असंख्यात गुणित श्रेणी के क्रम से परस्थान में देता है। इस प्रकार अंतिम समय में समस्त दलिकों का संक्रम हो जाता है।
विशेषार्थ – द्विचरम स्थितिखंड से चरम स्थितिखंड स्थिति की अपेक्षा असंख्यात गुण होता है तथा उस चरम खंड के जो प्रदेशाग्र उदयावलिका गत हैं, उनको छोड़कर शेष प्रदेशागों को परस्थान में अर्थात पर प्रकृतियों में प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणी से प्रक्षेपण करता है। वह इस प्रकार है -
प्रथम समय में अल्प प्रदेशाग्र (दलिक) को संक्रांत करता है, द्वितीय समय में उससे असंख्यात गुणित दलिकों का संक्रमण करता है, तृतीय समय में उससे भी असंख्यात गुणित दलिक को संक्रांत करता है। इस प्रकार असंख्यात गुणित क्रम से चरम समय तक जानना चाहिये। इस प्रकार परप्रकृति में प्रक्षिप्यमाण प्रकृतियों के प्रक्षेपण का क्रम अंतिम समय तक प्रवर्तमान रहता है। चरम समय में जो सम्पूर्ण दलिक का संक्रमण होता है वह सर्वसंक्रम है - चरमसमये यः कृत्स्नसंक्रमो भवति स सर्वसंक्रमः। इस पद के द्वारा सर्वसंक्रम का लक्षण भी प्रतिपादित किया गया जानना चाहिये। वेदकसम्यक्त्वादि की उद्वलना के स्वामी अब वेदकसम्यक्त्व आदि प्रकृतियों के उद्वलनासंक्रम करने वाले जीवों का कथन करते हैं -
एवं मिच्छद्दिट्ठिस्स, वेयगं मीसगं ततो पच्छा। एगिदियस्स सुरदुग - मओ सव्वेउव्वि निरयदुगं॥६६॥ सुहुमतसेगो उत्तम - मओ य नरदुगमहानियट्टिम्मि।
छत्तीसाए नियगे, संजोयण दिट्ठिजुयले य॥६७॥ शब्दार्थ – एवं – इस प्रकार, मिच्छद्दिट्ठिस्स - मिथ्यादृष्टि के, वेयगं - वेदक (सम्यक्त्व) की, मीसगं - मिश्र प्रकृति की, ततो पच्छा - उसके बाद, एगिंदियस्स – एकेन्द्रिय जीव के, सुरदुगमओसुरद्विक के पश्चात, सव्वेउव्वि – वैक्रियद्विक के साथ, निरयदुगं - नरकद्विक की।
सुहुमतसेगो – सूक्ष्मत्रसजीव, उत्तमं - उच्च गोत्र की, अओय - और तदनन्तर, नरदुगं - मनुष्यद्विक की, अह – अब, अनियट्टिम्मि – अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में, छत्तीसाए - छत्तीस प्रकृतियों की, नियगे - अपना-अपना (क्षपक), संजोयण – अनन्तानुबंधी, दिट्ठिजुयले – दृष्टि युगल की, य - और।
गाथार्थ – इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के वेदक सम्यक्त्व की और तत्पश्चात मिश्रमोहनीय की उद्वलना होती है। एकेन्द्रिय जीव के देवद्विक और उसके बाद वैक्रियसप्तक के साथ नरकद्विक की उद्वलना होती है।