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[ कर्मप्रकृति तं – उस, दलियं – दलिक को, सटाणे – स्वस्थान में, समए-समए – समय-समय में, असंखगुणियाए – असंख्यात गुण रूप से, सेढीए – श्रेणी से, परठाणे – परस्थान में, विसेसहाणीए - विशेष हानि से, संछुभई – प्रक्षिप्त करता है।
___जं - जितना, दुचरमस्स – द्विचरम खंड का, चरिमे – चरम समय में, अन्नं – अन्य प्रकृति में, संकमइ – संक्रान्त होता है, तेण – उससे, सव्वंपि - सर्व द्रव्य भी, अंगुल असंखभागेण - अंगुल के असंख्यातवें भाग द्वारा, हीरए – अपहत होता है, एस - यह, उव्वलणा - उद्वलना संक्रम।
गाथार्थ – आहारकसप्तक की सत्तावाला जीव अविरति भाव को प्राप्त होकर एक अन्तर्मुहूर्त के पश्चात उद्वलना प्रारम्भ करता है और अविरत रहते हुये पल्योपम के असंख्यातवें भाग द्वारा उद्वलना कर देता
है।
अन्तर्मुहूर्तकाल में पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिखंड को उत्कीर्ण करता है। तत्पश्चात पुनः भी अन्तर्मुहूर्तकाल से उसी प्रकार उत्कीर्ण करता है किन्तु यह स्थितिखंड पूर्व स्थितिखंड से असंख्यात गुणहीन होता है।
उस उत्कीर्ण किये गये दलिक को प्रतिसमय स्व स्थान में असंख्यात गुणश्रेणी से और परस्थान में विशेषहीन हीन प्रक्षिप्त करता है।
द्विचरम स्थितिखंड का जो कर्मदलिक चरम समय में अन्य प्रकृति में संक्रांत किया जाता है, उस प्रमाण से अंगुल के असंख्यातवें भाग द्वारा अन्त्यखंड का सर्वद्रव्य अपहृत होता है। यह उद्वर्तना संक्रम है।
__ विशेषार्थ – (आहारतणू' इस बहुवचन से आहारकसप्तक का ग्रहण करना चाहिये) अतएव आहारकसप्तक की सत्ता वाला जीव अविरति अर्थात विरति (संयम) के अभाव को प्राप्त होता हुआ अन्तर्मुहूर्तकाल से परे आहारकशरीर (आहारकसप्तक)की उद्वलना करता है।
प्रश्न – कितने काल तक उद्वलना करता है ?
उत्तर – जब तक अविरत रहता है तब तक उद्वलना करता है। इसके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि अविरत निमित्तक आहारकसप्तक की उद्वलना जानना चाहिये।
अविरति तो अनन्तकाल तक रहती है। क्योंकि अविरत आहारक शरीरवाला अविरत (मिथ्यात्वी) होकर अपार्धपुद्गल परावर्तनकाल तक बना रह सकता है और अपार्धपुद्गल परावर्तन अनन्तकाल प्रमाण होता है। इसलिये प्रकृत में अविरति से कितना काल ग्रहण करना चाहिये, इसका नियम करने के लिये गाथा में 'पल्लभागे असंखतमे' यह पद दिया है। अर्थात पल्योपम के असंख्यातवें भाग के द्वारा सर्वाहारकसत्ता की उद्वलना कर देता है।